॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
मनै मन मेघनाद वीराय। कहै मम समता के लखनाय॥
बिभीषण को निरखै तहँ भाय। लखन के पीछे परैं दिखाय॥
क्रोध अति बाढ़ै रहा न जाय। साँग रथ पर से लेय उठाय॥
मनै मन कहै हतौ यहि धाय। तिलक यहि प्रथम कीन रघुराय।३३८०।
बनावैं चहैं लंक को राय। मरै यह तो छुट्टी मिलि जाय॥
बचन बिरथा रघुबर के जाँय। भागि सब जावैं लड़ैं न भाय॥
लखन के निकट बिभीषण आय। देंय सब हाल तुरत बतलाय॥
सांगि यह महा कठिन है भाय। लागतै प्राण संग लै जाय॥
जानिगे लच्छिमन हरि किरपाय। बिभीषण को यह मारै आय़।३३९०।
शक्ति यह खाली सकै न जाय। बचन दै तिलक कीन प्रभु आय॥
बचन प्रभु का को सकै मिटाय। करैं अब जो हमरे मन भाय॥
लखन तब कहैं बिभीषण राय। होय वैसै जस हरि इच्छाय॥
प्रेरना जैस करैं सुखदाय। वैस ही तन मन में बसि जाय॥
बिभीषण लखन निकट लखि पाय। चलै घननाद क्रोध करि धाय।३४००।
आय दुइसै पग पर रुकि जाय। शक्ति दहिने कर लीन्हे भाय॥
पकरि दुइ करन ते मंत्र सुनाय। चलावै मेघनाद वीराय॥
बिभीषण को पीछे कर धाय। लखन सन्मुख में होवैं जाय॥
लगै उर शक्ति पार ह्वै जाय। जाय कर शक्ति लोक ठहराय॥
उतानै लखन गिरैं महि आय। रुधिर बहु गिरै धरनि पर भाय।३४१०।
ऋच्छ कपि चारौं ओर ते आय। खड़े होवैं निरखैं अकुलाय॥
बिभीषण दौरि प्रभू ढिग जाँय। कहैं सब हाल चलैं हरि धाय॥
आय तहँ देखैं लछिमन भाय। पड़े हैं स्वाँस न नेकौ आय॥
दोऊ कर कमलन शीश उठाय। धरैं जंघा पर प्रभु दुख पाय॥
करैं तहँ रुदन कहा नहि जाय। रुधिर नैनन जल सब बहि जाय।३४२०।
कहैं प्रभु उठिये मम सुखदाय। हमै तुम बिन कछु नहीं सुहाय॥
जानकी हरे का शोक न भाय। शोक अति तुमरो उर दहकाय॥
जानि जो पाइति हम यह भाय। बिछुड़ि यहँ हमते जैहौ आय॥
पिता के बचन न मानित भाय। होत चहै हमै नरक दुखदाय॥
बचन हमरे पर आय के भाय। घाव उर शक्ती को लीन वेधाय।३४३०।
बाँह दाहिन मम टूटी भाय। अवध को जाव कवन मूँह लाय॥
सुनैं सब कहैं हमैं का भाय। सिया के हित प्रिय बन्धु गंवाय॥
यहाँ का हाल जानि सब भाय। जाय घननाद लंक हर्षाय॥
दशानन ते सब हाल सुनाय। कहैं पितु करौ राज्य हर्षाय॥
अवध का हाल सुनो अब भाय। उदासी नगर भरे में छाय।३४४०।
भरत शत्रुहन के उर धड़काय। वशिष्ठ औ सुमन्त गये घबड़ाय॥
मातु तीनो बैठीं अकुलाय। कहैं का भयो जानि नहिं जाय॥
पशू पक्षिन तन सुस्ती छाय। सकैं नहि बोलि बैठि समुझाँय॥
भरथ जी कहैं शत्रुहन भाय। जाव श्री गुरु ढिग पूछौ जाय॥
चलैं शत्रुहन चरण शिर नाय। पहुँचि जाँय गुरु वशिष्ठ गृह आय।३४५०।
करैं दंडवत चरन में धाय। उठाय के गुरु उर लेंय लगाय॥
शत्रुहन हाल देंय बतलाय। सुनैं गुरु कछू न बोलैं भाय॥
चलैं शत्रुहन को लै संग धाय। आय कौशिल्या भवन में जाँय॥
परैं कौशिल्या चरनन धाय। देंय आशिष बैठैं घबड़ाय॥
शत्रुहन माता चरनन धाय। परैं औ बैठैं गोद में जाय।३४६०।
सुमित्रा कैकेयी तहँ आय। परैं चरनन में गुरु के धाय॥
सुमन्तौ आय जाँय तहँ धाय। गुरु के चरनन में परि जाँय॥
पाय आशिष बैठैं मुरझाय। गुरु से कहैं सबै बचनाय॥
काह गुरु भयो दुःख उर छाय। बिचारौ करि किरपा सुखदाय॥
जारी........