॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
खड़ा घननाद जहाँ दुखदाय। पकड़ि ले किटकिटाय के भाय।४४२०।
कहै अब तुम को कौन छुड़ाय। बड़े तुम वीर कहावत भाय॥
बीरता अब ही देंउ नशाय। उड़ै लै आसमान को जाय॥
करै द्वै घंटा खूब लड़ाय। तमाचा मुष्टिक बहु पेचाय॥
करै नाना बिधि माया भाय। पवन सुत दाहिन चरण उठाय॥
देंय उर में तब चक्कर खाय। आय नीचे फिरि ऊपर जाय।४४३०।
कहै धनि धन्य पवन पूताय। लड़ै फिरि अस्त्र लै कर दुखदाय॥
पवन सुत के नहि नेक बिसाय। अंग सब वज्र का सुर मुनि गाय॥
समुझि मन भागि मही पर जाय। पकड़ि अंगद से होवै भाय॥
बहुत कुछ दाँव करै दुखदाय। पकड़ि कर अंगद पीठी लाय॥
मही पर पटकैं चटि उड़ जाय। उछरि सुग्रीव गगन में जाय।४४४०।
करैं तँह मारि तमाचन भाय। लड़ै दुइ घड़ी वहाँ रिसिआय॥
चलै बस नहीं भूमि पर आय। मयंदौ द्विविद पकड़ि लें धाय॥
गिरावैं तस अन्तर ह्वै जाय। करैं माया बहु रूप बनाय॥
कपी औ ऋक्षन ते भिड़ जाय। मारि व्याकुल करि दे दुखदाय॥
ऋक्ष कपि मूर्च्छि गिरैं महिं भाय। नील नल के सन्मुख जस आय।४४५०।
पकड़ि लें दोनों कर तहँ धाय। चहैं अब मारैं खूब अघाय॥
निबुकि के दूर परै दिखराय। न जानैं माया का तन आय॥
क्रोधि करि किटकिटाय रहि जाँय। चलै तब ऋक्षराज समुहाय॥
अनेक ते एक होय शरमाय। कहैं तब जाम्वन्त गोहराय॥
खड़ा रह भागि कहाँ को जाय। कहै कर जोरि सुनो बृद्धाय।४४६०।
लड़ैं हम आप से का मूँह लाय। पकड़ि पग फिंक्यो अति बलदाय॥
गयो सब हमरो होश उड़ाय। लड़ेन हम बड़े बड़े शूराय॥
न हारेन कहीं विजय करि आय। कीन मद चूर आप बृद्धाय॥
थाह तव बल की कही न जाय। पिता की आज्ञा ते हम आय॥
नहीं तो छिपि कहीं बैठित जाय। मरैं प्रभु सन्मुख रण में भाय।४४७०।
पाप सब नाश होंय दुख जाय। हाँक दै चलै लषण पर धाय॥
दोऊ कर भाला लीन्हे भाय। चलावै बड़े बेग से आय॥
काटि चट बाण ते दें लषनाय। उठावै बरछी फेंकै भाय॥
लषण तेहि शर दे देंय पराय। गदा औ साँग बहुत अस्राय॥
चलावै चलै न एक उपाय। समुझि जाय मन में बचैं न भाय।४४८०।
समय अब हमरा गा नियराय। कहैं तब लषण सुनो दुखदाय॥
वार हमरा अब रोकौ भाय। चलावैं लषण बाण रिसिआय॥
काटि कृपाण से देय गिराय। फिरै फिरकी सम ठौरै भाय॥
देखत बने कौन कहि पाय। दोऊ कर साधे असि चमकाय॥
बाण की सान न नेरे जाय। लषण के बाण एक से भाय।४४९०।
होंय दस दस से सहस्त्र देखाँय। सहस से दस सहस्त्र ह्वै जाँय॥
फेरि सौ सहस चलैं सन्नाय। न बेधैं मेघनाद तन भाय॥
दुरावै अति ते अति रिसिआय। कहै हे बीर सुनो लषनाय॥
न बेधैं बाण अंग मम भाय। सिखेन हम तात से बहु बिद्याय॥
जौन अब समर में होत सहाय। फेरि उड़ि के अकाश को जाय।४५००।
वहाँ से गरजत भूमि को आय। सेन बहु गिरै मही कपि जाय॥
उदधि का जल बाहर बहि जाय। कच्छ औ मच्छ मरैं बहु भाय॥
एक ते एक जाँय टकराय। गिरैं बहु बिटप भूमि पर आय॥
मरैं पक्षी मुख पर फैलाय। पंख कितनेन के कटि भाय॥
फटकते कितने चोंच को बाय। लषण तब सिया मातु को ध्याय।४५१०।
चलावैं शर सन्नाते जाँय। नाभि में लगैं पार ह्वै जाँय॥
जारी........