॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल २ ॥ (विस्तृत)
३१. साल में एक बार (आश्रम) आना ठीक, ज्यादा नहीं। खरचा बहुत होता है। कहीं भी रहे सुरति लगी रहे।
३२. (हमें) पत्र में भजन (के) बारे में न लिखो, (हमसे) मिलने पर कहो।
३३. कोई का पत्र कोई (दूसरा) न पढ़े - महापाप है, कोई लाये तब पढ़ दे।
३४. साधक तारीफ न चाहे। भगवान जानें तुम जानों तब काम बनेगा।
३५. मन लग जाय, काम बन जाये।
३६. यज्ञ होय (और) एक भूखा चला जाय, सब व्यर्थ।
३७. चार अक्षर का शिव जी का मंत्र धन, पुत्र, यश देने वाला है। बिना पढ़े (अपढ़ लोगों के) भी तीसों हजार के मकान बन गए दुकानें खुल गईं, मन लगाने की बात है।
३८. थाली में बढ़िया भोजन हो, (उसे छोड़) चना खा ले, तब मन काबू हो जाय।
३९. बनुआ (दिखावटी) भक्त न बनो, तुम जानो भगवान जाने।
४०. संस्कारी जीव ही भजन कर सकता है।
४१. भक्त (साधक) दया की मूरत है।
४२. बिना इंद्रिय दमन मन न लगे।
४३. जिसका (भगवान से) अगाध (अनन्त) प्रेम हो गया वह चाहे जो खाय।
४४. प्रेम की जरूरत है, पढ़ने की जरूरत नहीं।