॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥(१०)
पद:-
सतगुरु करै गुनै निसि बार। जानि मानि होवै भव पार।
यह मसला कबीर जी क्यार। गदही का बच्चा थाने दार।
सारी रय्यत लेत सम्हार। क्या कर सकते चोर तुम्हार।
सुर मुनि मिलैं करै जै कार। अब तुम संघी भयो हमार।
सन्मुख राजैं सब औतार। रोम रोम से धुनि रंकार।५।
अमृत पान करो निशि बार। अनहद बजै सदा एक तार॥
छूटि गयो सब जग ब्यवहार। पढ़ि सुनि लिखि बनते हुशियार॥
यह सब जानो झूठा कार। बिना अमल कीन्हे सुखसार॥
कैसे गिरे दुहे बिन धार। अंधे कहैं कटै दुख जार॥
सच्चा ह्वै कर खेल पसार। सो तरि जाय औ देवै तार।१०।
दोहा:-
जग के झंझट में फंसे वे माया के तात।
अंधे कह सुमिरन करै ते हरि के ढिग जात॥
पद:-
घर में चोर रहत निशि वार।
मन को अपने संग मिलाये कपट में हैं हुशियार।
सारा सुकृत जीव का लूटत करत रहत तकरार।
घाटि करन का पट्टा लीन्हें चट्टा दै लें मार।
इनके सट्टा से सो जीतै सतगुरु का ले द्वार।५।
जे नहिं चेतैं निबुकि न पावैं रोवैं नर्क मंझार।
यह बिनती अंधे की सुनिये सब से करत पुकार।
राम नाम को सुमिरन करिके जियति होहु भव पार।८।
दोहा:-
नागिनि जगै चक्र सब नाचै कैसी हो भनकार।
अंधे कह फूलैं कमल स्वरन ते महक निशार॥
पद:-
दर दर में रो रहे हैं हरि नाम जिन न जाना।१।
अंधे कहैं अब चेतैं सतगुरु से ले परवाना।२।
सुमिरन में मन पगै जब मिटि जाय आना जाना।३।
तन त्यागि करि के भक्तों निज धाम हों रवाना।४।
पद:-
न हो मुचलका न हो ज़मानत जमा अमानत न नाम की है।१।
न हो सिफ़ारिश न कोई वारिस अंधे कहैं जेल बद काम की है।२।