२१ ॥ श्री नानक जी ॥
दोहा:-
अर्ध्द चन्द्र ओंकार पर, जानि लेय जो कोय ।
सत्य लोक को जाय फिरि, आवागमन न होय ॥१॥
कंठकी जाप पिपीलका, स्वांसा की है मीन ।
सूरति जाप विहंग है, जानहिं परम प्रवीन ॥२॥
पद:-
शब्द का भेद कछु वेद नही पायौ, कहत है सब साँच साँच ॥१॥
गुरु देव से नाम कि धुनी जानि तब हरि चरित्र फिर बाँच बाँच ॥२॥
तीनोइ गुनन के परे होय तब लगै कभी नहिं आँच आँच ॥३॥
मन रम्यो नाम औ रूप संग ठग स्थिर ह्वै गये पाँच पाँच ॥४॥
प्रेम मगन छवि देखै तौन घनश्याम सखा सखी नाच नाच ॥५॥
मिटि जाय करम गति विधि की लिखी जो मस्तक में दियो खाँच खाँच ॥६॥
है सुरन को दुर्लभ नर शरीर कैसा सुन्दर यह ढाँच ढाँच ॥७॥
नानक विरथा मानुष शरीर हरि भजन बिना जैसे काँच काँच ॥८॥
दोहा:-
बेद कि गति बैकुण्ठतक, आगे गति कछु नाहिं ।
राम नाम गुरु से मिलै, है सब के तन माहिं ॥१॥
सुर मुनि संतन जो कही, सो सब दीन लखाय ।
बेद भेद पायो नहीं, साँची दीन बताय ॥२॥
बेद त्रिगुन के परे नहिं, तीनो गुन परवीन ।
श्री कृष्ण भगवान ने, गीता में कहि दीन ॥३॥
मोक्ष जीव तब होत है, मिटै सबै संताप ।
एक अंश हरि भेजते, जग हितार्थ हित आप ॥४॥
पाप ते महि गुरुआय जब, तब आवैं वे अंश ॥५॥
जगत आय रक्षा करैं, होय दुःख बिध्वंश ॥६॥
फँसै नहीं वे जगत में, चले जाहिं हरि पास ॥७॥
ऐसे खेल लगा रहै, कीजै मन विश्वास ॥८॥
हरि की लीला अगम है, नाहिन पारावार ॥९॥
संत गुरु जो किरपा करैं, नाम खुलै सुखसार ॥१०॥
चारों मोक्षन का यहीं, हाल जानि तुम लेहु ॥११॥
राम नाम सुमिरन करहु, निज नैनन लखि लेहु ॥१२॥
भक्तन सँग खेलत रहैं, राम आप ही खेल ॥१३॥
संशय देंय मिटाय सब, जो ह्वै जाय अकेल ॥१४॥
अकेल उसी को कहत हैं, नाम कि धुनि एकतार ॥१५॥
तार कभी टूटै नहीं, काह करै संसार ॥१६॥
कोटिन के तब बीच में, बैठौ बोलौ खाव ॥१७॥
विघ्न कोई ब्यापै नहीं, राम नाम परभाव ॥१८॥
यह सिध्दान्त अपेल है, जान लेहु गुरु पास ॥१९॥
आँखी कान खुलै तबै, होहु राम के दास ॥२०॥
राज योग या को कहत, सब योगन को मूल ॥२१॥
याके बिन जाने सुनो, मिटै न तन मन शूल ॥२२॥
छूटि जांय संकल्प सब, निर्विकल्प होय जाय ॥२३॥
तब हरि के ढिग जाइहै, साँची दीन बताय ॥२४॥
संतन की संगति करै, तन मन प्रेम लगाय ॥२५॥
राम कृपानिधि द्रबहिं तब, सतगुरु देहिं मिलाय ॥२६॥
सूरति शब्द के जाप को, सतगुरु देहिं बताय ॥२७॥
रोम रोम ते नाम धुनि, श्याम स्वरूप दिखाय ॥२८॥
अजपा या को कहत हैं, सूरति शब्द की जाप ॥२९॥
जिह्वा चलै न कर हिलै, जपै आप को आप ॥३०॥
राम विष्णु औ कृष्ण जी, एकै हैं नहिं दोय ॥३१॥
नानक जे जन जानिगे, मुक्ति भक्ति लियो सोय ॥३२॥
कह नानक धनि संत वे, जिन कछु साधन कीन ॥३३॥
तिन चरनन की रज भली, मुख औ सिर पर लीन ॥३४॥
साढ़े तीन कोटि तीरथ बसैं, चरनन में लेव जान ॥३५॥
जारी........