२१ ॥ श्री नानक जी ॥
जारी........
राम ब्रह्म साकेत के वासी। जिन इच्छा करि सब परकासी ॥४॥
पूरण सुख के हैं प्रभु रासी। चारौं मोक्षन के तहँ वासी ॥५॥
बरन सकै छवि वहँ की को है। देखत ही बनि आवत जो है ॥६॥
अन्तरगत हैं आदि भवानी। अगनित शक्ती जिन उत्पानी ॥७॥
दोहा:-
हमको गुरु महाराज ने, दीन्हों भेद बताय ।
जड़ समाधि में मन चपल, सृष्टी रचत अघाय ॥१॥
यासे याको मत सिखो, मानो बचन हमार।
राजयोग को जान लो, मिलै तुम्हैं सुखसार ॥२॥
शून्य में सोऽहं रूप प्रभु, रहत लीजीये मान ।
पवन में पवन जबै मिलै, कैसे पावै जान ॥३॥
सत्यलोक से दयानिधि, नाम को दीन पठाय ।
त्रिकुटी पर आसन कियो, दुइ दल कमल पै आय ॥४॥
एक अंश महा शून्य में, दूसर शून्य में जान ।
गगन में तीसर जानिये, त्रिकुटी चौथा मान ॥५॥
त्रिकुटी से वहु अंश बनि, छिटके तन में जाय ।
धुनी उठत है नाम की, रोम रोम हर्षाय ॥६॥
चौपाई:-
मध्य भाग पच्छिम दिशि सोहै। तीनों नारायण मन मोहै ॥१॥
धुनी ध्यान का खेल पसारैं। शून्य समाधि सबै मिलि धारै ॥२॥
आपै आप को जानन हारे। आपै आप खेल विसतारै ॥३॥
करि विश्वास श्री गुरु बानी। निर्भय ह्वै भजु सारंगपानी ॥४॥
छूटि जाय सब तन की काई। हर शै में फिर वही दिखाई ॥५॥
जप अरू ध्यान सदा संग जानौ। अन्तराय होवैं नहिं मानौ ॥६॥
अकह अपार अगम यह बाता। गुरु किरपा नानक कहैं ताता ॥७॥
दोहा:-
सतगुरु बचन में प्रीति हो, अन्धकार हर जाय ॥८॥
प्रेम दीनता उर बसै, हर दम रूप दिखाय ॥९॥
चौपाई:-
नाम रूप का खेल अपारा। पालन उत्पत्ति प्रलयक सारा ॥१॥
नाम से रूप बनत पल माहीं। रूप से नाम कि सब पर छाहीं ॥२॥
लीला धाम बनत नहिं देरी। नाम कि सब दिशि अहै उजेरी ॥३॥
पद:-
नाम रूप परकाश दशालय और न दूजा कोई जी ॥१॥
द्वैत भाव तन से जब छूटै सूरति शब्द मिलोई जी ॥२॥
अस्तुति निन्दा सम तब होवै तन मन प्रेम भिजोई जी ॥३॥
नानक सतगुरु से जब जानै मुक्ति भक्ति तब होई जी ॥४॥
दोहा:-
बायें स्वर में शशि रहैं, दहिने सूर्य को जान ।
मध्य में सुखमन जानिये, तहँ पर शिव को थान ॥१॥
चौपाई:-
प्राण का बास कण्ठमें जानो। हिरदय बास मनहिं कर मानो ॥१॥
जब मन सूरति संग लग जाई। तब अकाशवत् होत है भाई ॥२॥
छवि देखैं जब श्याम कि प्यारी। प्रेम की डोरि बँध्यौ सुख भारी ॥३॥
दोहा:-
शंख चक्र गदा पदुम कर, मुरली धनुष औ बान ॥१॥
तीनौ शक्तिन के सहित, सन्मुख कृपानिधान ॥२॥
पन्द्रह विधि की जाप को, गुरु किरपा हम जान ॥३॥
कह नानक मानो सही, लय समाधि अरु ध्यान ॥४॥
नीचे उपर दंत जो, समुहें पर है जान ॥५॥
जिह्वा तिन में साँटिये, मुख मुंदौ हो ज्ञान ॥६॥
बैठि उनमुनी से तबै, सूरति शब्द लगाव ॥७॥
चन्द्र सूर्य जब एक हों, सुखमन घाट नहाव ॥८॥
तिरवेनी स्नान भइ, वहाँ खेचरी लागि ॥९॥
पाप पुन्य दोनों जरे, सबै कामना भागि ॥१०॥
हठयोगिन की खेचरी, तुम्हैं देंव बतलाय ॥११॥
जारी........