२४ ॥ श्री भीखा जी ॥
(बाल चरित्र)
लावनी:-
श्री राम भरथ औ लखन शत्रुहन भाई।
दशरथ के आंगन खेलत शोभा छाई।
कुण्डल कानन में शिर पर मुकुट सुहाई।
है पीत झिंगुलिया कटि करधनियां भाई।
पगन पनहियां रतन जटित चमकाई।५।
बाजै पैजनियां ठुमुकि चलत सब भाई।
कर छोटे छोटे धनुष बान सुखदाई।
नीचे औ ऊपर चहुँ दिशि देत चलाई।
बारह बिगहा की फरश हाथ गहराई।
मोती सांचे पिसवाय के तहाँ बिछाई।१०।
ता पर सब करत किलोल धूरि उड़वाई।
बहु शिशुन लेत बुलवाय सुनो बतलाई।
स्फटिक के खम्भे लगे चहूँ दिशि भाई।
खेलैं निहारि प्रतिबिम्ब हंसैं मुख बाई।
कनियां में लै लै आवैं सब की माई।१५।
बहु वृन्द कि वृन्द इकट्ठा होवैं आई।
सब हिलि मिलि खेलत हंसत गिरत उठि धाई।
कौशिल्या कैकेयी सुमित्रा आईं।
राजा दशरथ लखि रहै मनहिं हरषाई।
सब सुर मुनि देखैं अवधपुरी में आई।२०।
सब प्रेम में गद्गद कण्ठ से बोलि न जाई।
जब राम के बदन क तेज छिटिक जाय भाई।
तब सबकी आंखों में परकाश समाई।
सब अपनी आंखैं बन्द करैं गोहराई।
तुम काह करत हौ राम नैन चौंधाई।२५।
जब थोड़ी देर में फिर स्थिरता आई।
सब खुशी होंय शिशु आनन्द हिय न समाई।
सांवले रंग के जितने शिशु हैं भाई।
धूरी तन में लगि जाय चीन्हि ना जाई॥
जब गौर वरन शिशु तन में धूरि लगाई।३०।
बस देखत ही बनि परै कहत नहिं भाई।
माता नहिं पावैं जानि रहैं सकुचाई।
सब बालक लेवैं चीन्हि गले लिपटाई।
जब खेलि होंय तब बैठैं सब मिलि आई।
माता कौशिल्या बहु पकवान मंगाई।३५।
सब बालक खावैं जल पीवैं हर्षाई।
अंचल से झारैं अंग मातु सुख पाई।
चूमैं मुख करि करि प्यार हिये हुलसाई।
फिर कर गहि कनियां लेहिं मनो निधि पाई।
यह लीला नित प्रति होत ठीक बतलाई।४०।
हरि का जो सुमिरन करै सो देखै भाई।
चारों भाई मिलि दौरि भूप ढिग जाई।
ह्वै मातु पिता अति खुशी गोद बैठाई।
प्रात काल हो प्रथम उठैं रघुराई।
माता कौशिल्या मुख धोवैं हर्षाई।४५।
लड्डू पेड़ा दोनों कर देंय थम्हाई।
प्रभु खेलैं खावैं तन मन अति हर्षाई।
तँह काक एक पहुँचै आंगन में जाई।
किनका जो कहुँ गिरि जाँय धरनि पर भाई।
जारी........