२५ ॥ श्री वशिष्ठजी ॥
दोहा:-
एकै अक्षर रेफ़ है पूरन अकथ अनादि ।
स्वयँ सिद्ध प्रभु रूप हैं जपै महेश फनादि ॥१॥
सब दिन सब तिथि सब समय सब महूर्त सब देश ।
सब नछत्र सब राशि ग्रह सबै दिशन प्रभु पेश ॥२॥
सब सुर मुनि सब तीर्थन सब गिरि वन सब ताल ।
सब सरिता सामुद्र सब सबमें दीनदयाल ॥३॥
काम क्रोध मद लोभ यह मोह द्वैत जो भाव ।
माया माता चुप भईं राम नाम पर भाव ॥४॥
सब तुम पर नित खुश रहें गुरु सेवा तुम कीन ।
राम कृष्ण का खेल यह तुमरे संग जो कीन ॥५॥
और न कोउ दूजा कहीं बने अनेक व एक ।
उनकी लीला अकथ है या में फरक न नेक ॥६॥
रूप धरैं औ न धरैं शक्तिमान है नाम ।
सो जानै जो दीन ह्वै जपै जीह बिनु नाम॥७॥
नाम रूप औ लय दशा पाय जाय हिय माहिं ।
सबै वस्तु या में भरी तनिकौ संशय नाहिं ॥८॥
बिना गुरु के ना मिलै सृष्टि कि यह मरजाद ।
शरनि होहु सुमिरन करहु छोड़ि कपट बकवाद ॥९॥
काल सदा ताकत रहे जब पावै वह घात ।
पिंजरा तूरि के ले चलै फिरि पीछे पछितात ॥१०॥
बहुत दिनन तक नरक में भोग भोगावै तोहिं ।
तब नीचन घर लाय कै जन्म देहिं फिर तोहिं ॥११॥
जब तक हरि को ना भजौ तब तक छुट्टी नाहिं ।
सत्य बचन मैं कहत हौं जानि लेहु मन माहिं ॥१२॥
सोरठा:-
है वशिष्ठमम नाम सत्य बचन सुनि लीजीये ।
जानि लेव हरि नाम आवागमन न कीजीये ॥१॥
पढ़ै सुनै ह्वै दीन राम नाम को जानिकै ।
हम से गुरु कहि दीन लेव वचन मम मानिकै ॥२॥
तब जानौ यह भेद निर्गुन सर्गुन को अहै ।
काहे करत हो खेद शब्दहिं से सब कुछ लहै ॥३॥
सब में है भर पूर सब से फिर न्यारा रहै ।
गुरु किरपा नहिं दूर सन्मुख हर दम ही रहै ॥४॥
दोहा:-
या से कथनी छोड़ि कै अपना देहु मिटाय ।
द्वैत भाव तन से छुटै तबै प्रेम लगि जाय ॥१॥
रोम रोम ते नाम की धुनि हो आठोयाम ।
अनहद बाजा बजत है कहौं कहां लगि नाम ॥२॥
सर्व शक्ति को मान है सब में सब ही ठौर ।
निर्गुन सर्गुन निराकार वह शून्य समाधि न और ॥३॥
निर्विकल्प को ध्यान यह नहीं कल्पना कोय।
जापर जस किरपा करैं ताको तैसै होय ॥४॥
सोरठा:-
खेल भक्त सँग कीन राम कृष्ण लीला भली ।
जगहितार्थ हित दीन भक्तामृत चरितावली ॥१॥
निर्गुन सर्गुन ज्ञान जे नर जानहिं भव तरहिं ।
मिटै मान अपमान नहिं जग में जन्महिं मरहिं ॥२॥
जानि लेय जो कोय तन मन धन रघुनाथ जी।
आवागमन न होय राम न छोड़ैं साथ जी ॥३॥