३०२. ॥ राजा राम सिंह जी, गंगवल, की यात्रा:॥
९.११.७३ को शरीर छूटा। भगवती जी ने मुझे बताया कि रामसिंह पहले बीमार पड़े तभी से मारकेश (मृत्यु की ग्रहदशा) शुरू था। तुमने उनके लिये अपना सिर और महाबीर प्रसाद, लखनऊ, के लिये अपना धड़ मान दिया। हमें इतने दिन आयु बढ़ा देने की आज्ञा हुई, और मैंने अन्त समय उनको वैकुण्ठ पहुँचा दिया। तीनों भाइयों के परिवार को समय आने पर वहीं भेजूँगी। भरतसिंह ने खूब रामधुनि कराई। राम सिंह सुनते थे, बोल नहीं पाते थे। जब शरीर छूटा, गरूड़ जी ने उनको वसन पहना कर विमान पर बैठाया। पारषद लेकर उड़े, तो हम अन्तरध्यान होकर उनसे पहले पहुँचीं। रामसिंह ने बताया प्रथम वैकुण्ठ में दर्शन लक्ष्मी नारायण के किया, चरणों पर पड़े। माता पिता दोनों ने सिर पर हाथ फेरा। माता ने एक कटोरी में दिव्य क्षीर समुन्द्र का दूध पिलाया। फिर दूसरे वैकुण्ठ, तीसरे वैकुण्ठ में दर्शन करके, पर नारायण के दर्शन करके, सिंहासन पर बैठ गये। वह सिंहासन पारषद ले गये। यह जिस पर बैठे हैं - बहुत बड़ा है। काफी जगह सैन करने की है। वहाँ का हाल हम क्या वरनन करैं। माता ने कहा - बच्चा, बच्चा। हम जा रही हैं। रामसिंह ने चरन छुऐ। पीठ पर हाथ फेरा और अन्तर हो गईं।
३०३. राजा रामसिंह के सम्बन्ध में (श्री महाराज जी द्वारा प्राप्त) दिनांक २१.११.७३
१६.११.७३ शुक्रवार रात में शायद २ बजा होगा - रामसिंह जी आये। हम चादर ओढ़े थे, पैर पकड़े। हम मुँह खोला, कहा - कौन है? फिर उठकर बैठ गये, तो देखा, हाथ जोड़े खड़े थे। बोले, आप का दासानुदास रामसिंह। मुझसे भगवती जी ने कहा - तुम्हारे महाराज जी, जब से तुम्हारा शरीर छूटा है, बड़े दुखी हैं। तुम जाकर मिल आओ जिससे उनको शान्ति हो जाय। उनकी आज्ञा से मैं आया हूँ। रामसिंह से यह बात सुनकर और परिचय पाकर मन में शान्ति आ गई। हमने देखा छटा-छवि १२ बर्ष की उम्र। समझ गये यह चौथे वैकुण्ठ की सजावट है।
हमने कहा वहाँ का परिचय दीजिये। तुम्हारा कोई वहाँ है? तो कहा - हमारी माता-पिताजी, भाई शत्रुघ्न, मझले भाई का छोटा लड़का, सीता की माता, सीता के बाबा, सीता के भाई - भरतेन्द्र सिंह। हमने कहा भरतसिंह ने रामधुनि कराई - सो सुना? कहा, सुनते रहे बोल नहीं पाते थे। हमने कहा - अन्त समय कोई दर्शन हुऐ? तो कहा - शंकर जी, हनुमान जी, पारवती जी, गणेश जी, दुर्गा जी, काली जी, भैरव जी, औरों को हम चीन्हां (पहचाना) नहीं, बहुत थे - जै जै कार करते थे।
राम सिंह ने कहा - रोज वहाँ माता-पिता के चरन छूता हूँ। छोटा भाई, मझिले भाई का लड़का करीब है। सब खुश रहते हैं। वहाँ महान सुख है।
एक रानी का नाम बताया, शायद - इतराजि कुँवरि। चित्रकूट गईं, वहाँ भगवान का दर्शन हुआ। तब से अधिकतर तीरथों में रहती थीं। वे भी वहाँ मौजूद हैं। राजा साहब ने फिर कहा - मैं आप से एक निवेदन करना चाहता हूँ। हमने कहा - कहिए। तो कहा - मैं इस लायक न था। मैं तो आप का रिणी (ऋणी) हूँ, जो भगौती जी को सिर मान कर और इतने दिन रोककर वैकुण्ठ भेज दिया। अब हमारे दोनों भाईयों से और भाईयों के लड़के से, उनकी धर्म पत्नी से, सीता से, दोनों लड़कों से कह दीजियेगा, कि अपने अपने इष्ट का जप पाठ मन लगाकर नेम-टेम से करैं और मिलकर रहें। जीवों पर दया करैं। सब भगवान ठीक करेंगे। जब ईमान ठीक होता है तब सब काम भगवान पूरा करते हैं । सबका समय भगवान बांधे है। उस समय को कोई मिटा नहीं सकता।
महावीर प्रसाद को, भगवती ने कहा, तुम्हारे पास ही भेजूंगी। उनके लिये महाराज धड़ मान चुके हैं। और बूढ़ी रानी व उनके पिता भी वहीं जावेंगे।