३०३ ॥ श्री रघुबरदास पासी जी ॥
(अपढ़)
दोहा:-
रघुबर पासी सच कहैं षट् झाँकी सब ठौर।
मन काबू कीन्हें बिना दौरि रहे सब दौर॥
पद:-
लखौ षट् रूप की शोभा। जाकी माया जगत लोभा॥
सुरति जो शब्द में चोभा। टूट तब द्वेत के टोभा॥
खुले तब श्रवण औ नैना। साफ दिल का भया ऐना॥
भई तब दृष्टि सुखदाई। रूप सन्मुख रहे छाई।८।
त्यागि तन चढ़ि सिंहासन पर। पहुँचिगे अपने आसन पर॥
मिला साकेत स्थाई। अचल पदवी जो कहलाई॥
बिना हरि के भजे भाई। कौन वहँ पर सकै जाई॥
दास रघुबर कहैं गाई। जौन जाना सो लिखवाई।१६।