३०५ ॥ श्री सहीशाह जी ॥
(अपढ़, आसनसोल)
बार्तिक:-
जब आरती हो या प्रार्थना तब दण्डवत करना मना है। उसकी दण्डवति कटि जाती है, उसका भाव ग़लत माना जाता है। यह लिखाया गया है। लोग मानते नहीं हैं, कोरे के कोरे रह जाते हैं।
पद:-
जब इधर फिकिर तब उधर नहीं। जब उधर जिकिर तब इधर नहीं॥
बातें गढ़ना फलत नहीं। मन काबू बिन तरत नहीं॥
दोहा:-
सही शाह कह भजन करु निशि बासर एकतार।
षट् झाँकी सन्मुख रहे हरदम हो दीदार॥
मुर्शिद में जब भाव हो गोश चश्म खुलि जांय।
सही शाह कहैं द्वैत तब मन से खुद बिलगाय।२।