३० ॥ श्री कबीरदास जी ॥
दोहा:-
सूरति शब्द में लीन भै ताहि काल नहिं खाय ।
रोम रोम धुनि उठत है हर दम रूप दिखाय ॥१॥
गारी:-
पढ़ि सुनि के जे ज्ञान कथत हैं तिनको नरक निशानी जी ॥१॥
सतगुरु बचन को मानत नाहीं झूठेबनते ज्ञानी जी ॥२॥
बिन अभ्यास किये नहिं पैहौ यह सुर मुनि सब ठानी जी ॥३॥
द्वैत भाव जब छूटि जाय तब तन-मन ह्वै जाय पानी जी ॥४॥
दीन होहु तब दया होय तब प्रेम मगन हो ध्यानी जी ॥५॥
सूरति शब्द कि जाप है अजपा रोम रोम धुनि जानी जी ॥६॥
हरि हर दम सन्मुख तुम देखो सुन्दर छबि महरानी जी ॥७॥
सबै देव मुनि दर्शन देवैं बोलैं अमृत बानी जी ॥८॥
जियत में मुक्ति भक्ति पद पायो आवागमन मिटानी जी ॥९॥
श्री गुरु रामानन्द हमारे मुक्ति-भक्ति के दानी जी ॥१०॥
स्वयं विष्णु भगवान अवतरित जगत हेतु भे आनी जी ॥११॥
सब को समता ज्ञान सिखावैं सब के मन ले मानी जी ॥१२॥
राग-द्वेष को छोड़ो प्यारे नाहक की हैरानी जी ॥१३॥
जो आवै सोई फल पावै ऐसे गुरु मम ज्ञानी जी ॥१४॥
गुरु सेवा हम तन मन से करि पायन पद-निर्वानी जी ॥१५॥
सुनो पुत्र तुम को समुझावों कछु मैं कहौं कहानी जी ॥१६॥
चारों धाम की कीन यात्रा, श्री गुरु सुखदानी जी ॥१७॥
द्वादश गुरु भाई सब मिलकर ज्ञानी औ विज्ञानी जी ॥१८॥
सेवा सतगुरु की नित करते तन-मन-धन कुर्बानी जी ॥१९॥
और भक्त जन संग बहुत थे गुरु महिमा जिन जानी जी ॥२०॥
पीनस में श्री गुरु विराजैं चारों तरफ़ से तानी जी ॥२१॥
सब गुरु भाई हिलि मिलि के हम तन मन से सुखमानी जी ॥२२॥
लै कर पीनस चलैं बेग से आनन्द हिय न समानी जी ॥२३॥
योगानन्द पुजारी हैं श्री योगेश्वर अति ज्ञानी जी ॥२४॥
सिंहासन में ठाकुर जी सिर पर धरि कै अगवानी जी ॥२५॥
बेद की धुनि श्री गुरु की अस्तुति बोलैं कोमल बानी जी ॥२६॥
उलटा चलैं योग के बल ते गुरु प्रताप उर आनी जी ॥२७॥
देखत सुर मुनि नर सब मोहैं को करि सकै बखानी जी ॥२८॥
सबै देव किरपा अति कीनी धर्म ध्वजा फहरानी जी ॥२९॥
गुरु सेवा के चिन्ह देखिये काँधेन बनी निशानी जी ॥३०॥
राति समै तम्बू के आगे पहरा हम मन ठानी जी ॥३१॥
तम्बू के चौतरफा आसन गुरु भाइन मन मानी जी ॥३२॥
पूजा योगानन्द करैं अति प्रेम मगन मन मानी जी ॥३३॥
धूप आरती होय मगन मन ध्यान समाधि भुलानी जी ॥३४॥
पैकरमा करि करैं दंडवत सब जन ज्ञानी ध्यानी जी ॥३५॥
चरणोदक परसाद बटैं तब सुर मुनि सब करतानी जी ॥३६॥
नाना भेष बनाय के आवैं ताड़ि लेंय गुरु ज्ञानी जी ॥३७॥
यह आनन्द मिलै निशि-बासर को करि सकैं बखानी जी ॥३८॥
योगानन्द जी भोग बनावैं आपै भरि के पानी जी ॥३९॥
गउ दूध गो धृत औ मिसरी लै एकै में सानी जी ॥४०॥
चावल जल में धोय लेंय फिरि धरै अगिन पर ज्ञानी जी ॥४१॥
पायस दुइ सेर चावल की बनती नित प्रति हम जानी जी ॥४२॥
माटी की हंडी में बनवैं सत्य कहौं मैं जानी जी ॥४३॥
दुइ चाँदी के पात्र में परसैं भरैं कटोरा ज्ञानी जी ॥४४॥
ठंढा करि के भोग लगावैं देखैं ध्यान से ध्यानी जी ॥४५॥
साक्षात हरि पाय रहे हैं रूप राशि गुनखानी जी ॥४६॥
चारों सरकारन की शोभा शेष न सकैं बखानी जी ॥४७॥
पाय भोग जल पियैं शान्त ह्वै अस्तुति सब मिलि ठानी जी ॥४८॥
पैकरमा करि करैं दंडवत सूरति हिये समानी जी ॥४९॥
जारी........