३० ॥ श्री कबीरदास जी ॥
जारी........
सांचे को झूठा लखैं झूठे को कहैं सांच ।
हीरा को त्यागन करैं लेंय दोउ कर कांच ॥१६॥
संसकार जाको जवन वैसै भोगै भोग ।
वैसै वाको मिलत हैं कह कबीर संयोग ॥१७॥
धीरे धीरे बनत है बिगड़ी सुनिये बात ।
सतगुरु के परताप से डिगरी होवै तात ॥१८॥
चौबिस घंटा रात दिन सो सब जान प्रमान ।
इतने समय के भीतर ही निकसि जाहिंगे प्रान ॥१९॥
सबै वस्तु जहँ की तहाँ पड़ी रहैगी मान ।
कह कबीर हरि भजन बिन मिलै नहीं सुख जान ॥२०॥