४६८ ॥ अनन्त श्री स्वामी सतगुरु नागा ॥(५)
सच्चा ज्ञान कहैं बड़ भागी।
सतगुरु करि सुमिरन बिधि जाना तन मन प्रेम में पागी।
अनहद सुनै पियै घट अमृत सुर मुनि कह अनुरागी।
कमल खिलें सब चक्र घूमते कुँडलिनी है जागी।
ध्यान प्रकास समाधि नाम धुनि रूप सामने तागी।
भूलन कहैं अंत निज पुर हो छूटी भव की आगी।६।