४८७ ॥ श्री ठाकुर शंकर सिंह यदुवन्शी॥
पद:-
श्री हरि प्रेम में पागल बौरा।
भक्त स्मरण उनका करते चाहत नहिं कछु औरा।
आप संघ में रहत हमेशा शुध्द अशुध्द न मानत ठौरा।
पंथ चलत में खेल करत क्या लटकति पकरि पखौरा।
भोजन करत संघ हंसि हंसि के छीन खाय लें कौरा।५।
निशि में नाना खेल दिखावैं भाजत खींचि पिछौरा।
धाय झपटि बैठैं छाती पर पकरैं कानन लौरा।
जांय हाट नौकर बनि कबहूँ सौदा के हित दौरा।
सब सामान खरीद लै आवैं शिर धर बांस क डौरा।
भक्तन के कहुं खेत बनावैं कर में साधि मठेई फौरा।१०।
चरनन की पनही कहुं पोछत कहूँ देत करि छौरा।
कहूँ मसाल दिखावत निशि में कहूँ सिखावत वारि में पौंरा।
कहीं पे वेद शास्त्र को भाखैं कहीं पे गीता मानस गौरा।
सतगुरु करौ भेद सब जानौ हो अब हीं तुम घौरा।
ध्यान प्रकाश समाधी होवै जहां मकान न चौरा।
खुलै नाम धुनि रग रोवन ते भन भनात जिमि भौरा।१६।