५१ ॥ श्री समर्थ राम दास जी ॥
दोहा:-
दुतिया कुतिया है बड़ी चाटि लेत सब अंग ।
दौरी दौरी फिरत है पाँच चोर हैं संग ॥१॥
क्रोध कसाई जानिये कामहिं जानु चमार ।
लोभ को धोबी जानिये ठाढ़ो द्वारहि द्वार ॥२॥
मोह व्याधि का मूल है जारत सकल शरीर ।
अहंकार जो ससुर है डारयो पगन जंजीर ॥३॥
चाह मेहतरानी भई सब नीचन में नीच ।
आप तो पूरन रूप ह्वै डारि दिहिस यहि बीच ॥४॥
चिता जलावै मृतक को चिन्ता जियत शरीर ।
या से चिन्ता छोड़ि के भजहु राम रघुवीर ॥५॥
जब तक मन स्थिर नहीं तब तक कारज बंद ।
मन स्थिर जब ह्वै गयो पूरन परमानन्द ॥६॥
शान्ति शील सन्तोष अरु प्रेम दीनता होइ ।
सरधा धर्म क्षमा दया राम नाम ते होइ ॥७॥
जब तक यह बातैं नहीं तब तक साधु न होय ।
कहन सुनन को बनत है तत्व न जानै सोय ॥८॥
सतगुरु से उपदेश लै लेय बचन मम मानि ।
राम नाम पर भाव कछु तब पावै वह जानि ॥९॥