साईट में खोजें

६७ ॥ श्री महात्मा नित्यानन्द जी ॥

जारी........

धुनी रहत एकतार तब सुनिये आठोयाम ।

अन्तराय नहिं होत है सदा राम का नाम ॥८॥

राम नाम रंकार है जपत महेश औ शेष ।

बीज मंत्र जेहि कहत हैं जो सब में है पेश ॥९॥

भीतर बाहर एक रस सुनिहै जौन हमेश ।

सो जग में आवै नहीं बसै प्रभू के देश ॥१०॥

महा प्रलय जब होत है श्री कलियुग के अंत ।

तब फिर सृष्टी रचत हैं प्रणतपाल भगवन्त ॥११॥

संसकार सब जीव के लगे रहत हैं साथ ।

आना जाना होत है लगी वासना साथ ॥१२॥

एकै थैली में सबै थैली जिमि धरि लेय ।

फेरि उन्हैं जब चहत हैं विलग विलग करि देय ॥१३॥

नाम रूप सब वस्तु का रहत भिन्न ही भिन्न ।

पंसारी भूलै नही रहत सदा परसन्न ॥१४॥

कछु चरित्र रघुनाथ का गुरु किरपा हम जान ।

योगानन्द यह कहत हैं मानो बचन प्रमान ॥१५॥

ऐसा हरि का खेल है जानैं पुरुष महान ।

गुरु किरपा जापर करैं सो हो जाय महान ॥१६॥

शिष्य वही जो गुरु को तन मन अर्पन कीन ।

नाम रूप पायो वही हरि ढिग बैठक लीन ॥१७॥

गुरु वही जो शिष्य को देय शब्द का भेद ।

नाम रूप परकाश लै होय मिटै सब खेद ॥१८॥

वही गुरु साँचे अहैं वही शिष्य हैं जान ।

मुक्ति भक्ति दोनौ लियौ आवागमन नसान ॥१९॥

गुरु जगत में कम अहैं चेलौ कम हैं जान ।

राम नाम चीन्हों नहीं बनते हैं गुनवान ॥२०॥

सुर मुनि संतन जो कही पढ़ि सुनि करत बखान ।

द्रव्य उपार्जन के लिये भेष बनायो जान ॥२१॥

अंत समय यमराज लै डारैं नर्क में जाय ।

गइ गुरुवाई भूल सब हाय हाय चिल्लाय ॥२२॥

नर्क में चेला जाय कै गुरु से बोलैं बोल ।

हमहूँ को लायो यहाँ सिखै के झूठी पोल ॥२३॥

चेला मारैं गुरु को यम देखैं तहँ ठाढ़ ।

गुरु जो बोलैं कछु वहाँ देंय दुःख जम गाढ़ ॥२४॥

भाला मुख में खोंसते चुवैं रुधिर की धार ।

त्राहि त्राहि तहँ पर करैं कर मन की बलिहार ॥२५॥

बदी क बदला बदी है नेकी का है नेक ।

राम नाम सुमिरन करै तन मन करि कै एक ॥२६॥

जैसी इच्छा जो करै तन मन प्रेम लगाय ।

वैसी वाको मिलत है सांची कहौं सुनाय ॥२७॥

सुर मुनि संतन जो कही सोई हम कहि दीन ।

योगानन्द यह कहत हैं भजहु नाम ह्वै दीन ॥२८॥

जीव जो शिव को चीन्हिले तब होवै निर्दोष ।

बिन चीन्हे जन्मै मरै छूटै कैसे दोष ॥२९॥

यह संसार बजार है सौदा है हरि नाम ।

सतगुरु बिन मिलि है नहीं है हर दम हर ठाम ॥३०॥

सृष्टी की मर्याद है गुरु बिन मिलै न ज्ञान ।

सुर मुनि संतन ने कही वेद शास्त्र परमान ॥३१॥

सुर मुनि संतन हरि चरित सो कछु पायौ जान ।

राम नाम गुरु से लियौ छोड़ि कपट अभिमान ॥३२॥

सूरति लागी शब्द में धुनी हो आठोयाम ।

जारी........