८१ ॥ श्री अत्रि जी ॥
दोहा:-
अर्ध्द चन्द्र ही रेफ़ है, जाको कहत रकार ।
वही रूप बनि जात है, सब का जो आधार ॥१॥
निःअक्षर स्वांसा रहित, और न दूजा कोय ।
गुरु दयाल होइ देहिं जेहि, लेइ परम पद सोय ॥२॥
ध्यान समाधी जो करै, सो पावै कछु जानि ।
राम नाम है क्या नहीं, लेव वचन मम मानि ॥३॥