॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल २३ ॥ (विस्तृत)
३०८. भैंस का सींग, भैंस का सींग।
उछरौ बूड़ौ - उछरौ बूड़ौ।
गपकुआ - गपकुआ।
दुवरचोद वक्त वे वक्त नहीं समझता।
थैली - थैली
यह (मंत्र) अपढ़ भक्तों के द्वारा जप कर सिद्ध किये गये हैं।
इनके-अर्थ:
'भैंस का सींग - भैंस का सींग' एक अहीर को एक साधू ने बताया। तब वह जुट गया। उसके पट खुल गये। उसका नाम सिंगा दास हो गया।
भगवान ने लक्ष्मी जी को बताया - कि हमारा यह नाम 'उछरौ बूड़ौ - उछरौ बूड़ौ' कृष्णावतार का है। जब सखाओं के साथ यमुना जी में नाक दबा कर डूबते फिर निकल आते - तब नाक छोड़ देते थे, यह नाम तब का है।
और यह 'गपकुआ' नाम तभी का है। हम छोटे पर खेलते खेलते खाना भूल गये। तब यशोदाजी दाल-भात घी सानकर कहती - आ रे मोर गपकुआ - यह कौर गपक लेव।
हमारे ननिहाल में नानू अहीर था। उसने सुना ईश्वर सर्वत्र है तो बस एक थैली लेकर 'थैली-थैली' करने लगा। सब लोग हँसा करते थे। तब हम बारह वर्ष के थे। पन्द्रह दिन बाद एक दिन राम जानकी, एक एक बीता के छोटे स्वरूप, निकल पड़े। सब लोगों ने देखा। सब के मुँह लटक गये। श्रद्धा विश्वास से मन रुक जाता है।
३०९. जब तुम्हारे सौ जूता मारे जांय, रंज न करौ - तब सब देवी देवता मिलने लगंै। यह कुन्जी भजन में सफलता मिलकर, भगवान की विशेष कृपा मिलने की है।
३१०. पद:-
सिद्धा जल ही में रहै, कमल भेक अरू मीन।
मीन भेक जान्यों नही, भ्रमर आय रस लीन॥
अर्थ:-
संत सिद्धादास जी कहते हैं कि जल में कमल, मेढ़क और मछली एक साथ रहते हुए भी मेढ़क और मछली उस कमल के रस व महत्व को नहीं जान पाते पर भौंरा दूर से आकर कमल के पराग की सुगन्ध ले जाता है।
भाव:-
इसी प्रकार महापुरूषों के समीप रहते हुए भी प्राणी महापुरूषों के दिव्य गुणों से परे रह जाते हैं - और दूर से आकर श्रद्धालु भक्त लाभ उठा जाते हैं।
३११. पद:-
पढ़ना, सुनना, लिखना न फले,
जब अमल नहीं उन बातों पर,
जब तन छूटी तब पड़ी,
पिस जैहौ जमन की लातों पर।
३१२. पद:-
कबिरा माला काठ की, कहि समुझावत तोहि।
मन को तो फेरत नहीं, काहे फेरत मोहि॥
३१३. भजन करने वाला चुप रहकर साधन करै, मान अपमान को हटा दे, तब भजन होता है। भक्त जाने भगवान जानें।
३१४. एक हस्त लिखित पत्र की नकल:
संसार भोगने की भूमि है, सभी को कर्म का फल भोगना पड़ता है। जो अपने इष्ट देव पर दृढ़ता से आरुढ़ है, वह संसारी कष्टों को हंसते-हंसते सहन कर लेते हैं। भगवान का जीव है, भगवान का शरीर है, इस वाक्य का ज्ञान होते हुए - हमेसा मन में बल पैदा होता रहता है।
३१५. आसन-बिधि:-
सीना मस्तक सम करै, कमलासन ले धार ।
नेत्र मूंद मन रोकिये, तब मिलिहैं सुख सार॥
३१६. कपड़ा पहिने तीन बार, बुध ब्रहस्पति शुक्रवार।
३१७. किसी देवी देवता का सहारा लेकर विश्वास न करना महामूर्ख का काम है। हमने फैजाबाद में एक मुसलमान अबू और उनकी औरत को खाली कलमा बताया था। दस तस्वी (माला) रोज जपते थे। वह कई हजार के कर्जी हो गये थे। दो लड़के एक लड़की सयाने हो गये थे। चार चार दिन खाने को नहीं मिलता। पानी पीकर रहते थे। उसी जप से कर्जे वाले चुप हो गये। पक्का उसमें खपरा छपवा दिया, जो ६० आदमी बैठ सकें। धीरे धीरे काम बढ़ने लगा। लड़का दर्जी का काम करके सीखने लगा। लड़की की सादी हो गई। मियां से अधिक बीबी पर दया हो गई सब देवी देवताओं की, जो लिखने के बाहर है। बड़े बड़े पंडित के होश उड़ गये।
३१८. जौ, मूंगा, सांवा तिन्नी, पसाई के चावल देवान्न है। व्रत में अन्न से आधा पैसा खर्च हो, वही खाय। देवता (अपने इष्ट में) सुरति लगी रहे - यही व्रत है।
३१९. चोर शान्त हो जांय, मान अपमान न लगे, तो जानो शक्ति आ गई।
३२०. भगवान इतने सस्ते नहीं। भक्त होना बड़ा कठिन है। जियते मर जाना - तब जियतै मुक्ति, भक्ति, देवता संग खेलना - सब कुछ जीते जी हो जाता है। इसमें शान्ति, दीनता की बड़ी जरूरत है। प्रेम की जरूरत है।