२३ ॥ श्री ईसा जी ॥
गजल:-
ईसा है नाम मेरा फरजन्द हूँ खुदा का ॥१॥
आया हूँ तुमसे मिलने जाना तुम्हें जहां का ॥२॥
गुरु ने जिसे बताया यह शब्द का पड़ाका ॥३॥
सूरति लगा के दागा पहुँचा वहीं तड़ाका ॥४॥
शेर:-
यह बहारे बाग़ दुनियां का तमाशा ॥१॥
जैसे पानी के पड़े घुलता बताशा ॥२॥
जिसने हर दम यादगारी की मतासा ॥३॥
बस वही हो जायगा आखिर खुदा सा ॥४॥
शेर:-
दीनता आई नहीं सो प्रेम पथ पाई नहीं ॥१॥
जब तक की तन ताई नहीं तब तक नजर आई नहीं ॥२॥
याद कर उस यार को जिसने रचा संसार को ॥३॥
पद:-
पेट में वादा किया सुमिरन करूँ तन मन जिया ॥४॥
फिर भूलि कर बैठा है ठग कब तक रहैगा कहतु जग ॥५॥
सब जीवों पर दाया करौ अरु नाम निश दिन ही ररौ ॥६॥
धुनि रोम रोम से हो रही कानन भनक समा रही ॥७॥
हर शय से नाम आवाज़ हो सन्मुख खड़ा सिरताज हो ॥८॥
बाजा बजै अनहद वहाँ आनन्द निधि ड्योढ़ी जहाँ ॥९॥
लय दशा में पहुँचोगे जब सुधि बुधि सबै भूलोगे तब ॥१०॥
सूरति लगै जब शब्द पर तब पहुँचि जावौ हद्द पर ॥११॥
अजपा इसी को कहा है सद्गुरु से हमने लहा है ॥१२॥
सद्गुरु से जब जानै कोई वहँ पर पहुँच सकता सोई ॥१३॥
पढ़ने से कछु होता नहीं सुनने से कछु होता नहीं ॥१४॥
तिल भर जगह खाली नहीं जहँ पर कि वह रहता नहीं ॥१५॥
है आप ही का खेल सारा आप ही मिलता नहीं ॥१६॥
सत्ता बिना उसकी कोई पत्ता तलक हिलता नहीं ॥१७॥
बच्चा मेरी इस बात पर कछु गौर करना चाहिये ॥१८॥
ईश्वर से मिलना गर चहै तो जियत मरना चाहिये ॥१९॥
जैसा करोगे काम दुनियाँ में सुनौ तुम आयके ॥२०॥
वैसा भरोगे आप ही वहँ पर सुनौ तुम जायके ॥२१॥
ईसा हमारा नाम है तन मन से सुमिरन काम है ॥२२॥
फरजन्द अपने राम का झूठे बचन से काम क्या ॥२३॥
दोहा:-
पर दुख देखि कै दुखी हो पर सुख देखि हुलास ।
ईसा कहैं ते धन्य नर उन पर करु विश्वास ॥१॥
यह सब ब्रह्म बिलास है जानि लेय जो कोय ।
सद्गुरु के परताप ते नयन श्रवण तेहि होय ॥२॥
पद:-
साँवली सूरति है प्रभु की मोहनी मूरति सुघर ॥१॥
धनुष शर कर में लिए मुरली अधर बाजे मधुर ॥२॥
शंख चक्र गदा पदुम धारण किये सन्मुख खड़े ॥३॥
तीनों हैं शक्ती संग में नयनों में मम नयना भिड़े ॥४॥
जियतै में यहँ पर तै करे तब दूसरे को ज्ञान दे ॥५॥
तन मन से सद्गुरु बचन पर विश्वास करिकै ध्यान दे ॥६॥
देखै चरित विचित्र अति कहने कि क्या फिर गम रहै ॥७॥
सब की सुनै अच्छी बुरी सुनकर के वह फिर थम रहै ॥८॥
सो पाइहै निर्वाण पद सत लोक में हरि रूप बन ॥९॥
कुंडल मुकुट उपमा अमित बरनन करै अस है को जन ॥१०॥
दिव्य सिंहासन पै आसन देंय दीना नाथ जी ॥११॥
अब पधरे प्रतिमा सम रहैं तहँ संत हंसन साथ जी ॥१२॥
इच्छा सबै गत ह्वै गईं प्रभु कर दिया मुख को मवन ॥१३॥
जारी........