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१३० ॥ श्री मोरध्वज जी ॥


दोहा:-

सेवा संतन की करै, साँची मन में प्रीति ।

बिन कसनी हरि न मिलैं, यह चलि आई रीति ॥१॥

तन मन धन ते ना डिगै, चहै शरीर कटि जाय ।

संत कृपा ते हरि मिलैं, मरिकै फिर जी जाय ॥२॥

या से जग में आय कर, सत्य धर्म नहिं छोड़ ।

हरि के पास में वास हो, सब का यही निचोड़ ॥३॥