१४५ ॥ श्री नल जी ॥
चौपाई:-
नाम प्रताप कहौं कछु भाई। जल ऊपर पाथर उतराई ॥१॥
उर प्रेरक यह खेल बनावा। मुनि से शाप मोहिं दिलवावा ॥२॥
अधम उधारन किरपा निधाना। जिनकी गति कोऊ नहिं जाना ॥३॥
छिन में तिलहिं सुमेरू बनावहिं। फिर सुमेरू को तिल में लावहिं ॥४॥
दोहा:-
कई संघठन होहिं जब, तब होवैं अवतार ।
जगत आय सुख देंय अति, लीला अपरम्पार ॥१॥
गाय गाय नर भव तरहिं, सांची करै प्रतीति ।
कपट कटारी त्यागि कै, मन को लेवै जीति ॥२॥