१४८ ॥ श्री गिध्दराज जी ॥
चौपाई:-
हरि का खेल कौन जग जानै। आपन कीन आप ही जानै ॥१॥
नेकी बदी क बदला देवैं। अपने ऊपर भार न लेवैं ॥२॥
यह मरजाद सृष्टि की जानो। जा को गावत वेद पुरानो ॥३॥
सीता हरि रावन जब भागा। महामन्द मति दुष्ट अभागा ॥४॥
तब हम दौरि के गासेंनि जाई। भई घोर तहँ युध्द अघाई ॥५॥
टरयों न मैं तब बहुत रिसाना। पर काटेसि गहि तेज कृपाना ॥६॥
तब मैं गिरयों भूमि में आई। मन में सुमिरि श्री रघुराई ॥७॥
थोड़े दिन में प्रभु जब आये। तब हम सब विरतान्त सुनाये ॥८॥
ह्वै दयाल तब कृपानिधाना। दीन धाम को सब जग जाना ॥९॥
सोरठा:-
अस मैं अधम मलीन, तिनकी गति ऐसी करी ।
भजै नाम लवलीन, सो जग में नहिं पग धरी ॥१॥