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१६७ ॥ श्री सधन जी ॥


दोहा:-

जन्म कसाई गृह भयो माँस बेचि नित खाउँ ।

रति दिवस लागी रहै सूरति हरि के नाउँ ॥१॥

किरपा निधि किरपा करी दीन आपना गाँव ।

या से जग में आय करि भूलै ना हरि नाँव ॥२॥