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१६९ ॥ श्री सुदामा जी ॥


सोरठा:-

विप्र वंश अवतार, महा दरिद्री मैं रह्यौ ।

राम नाम आधार, राति दिवस सुमिरत रह्यौ ॥१॥

पत्नी मम ढिग आय, वचन प्रेम से यह कह्यौ ।

जिनके मित्र कन्हाय, तिन जग में यह दुख सह्यौ ॥२॥

जाव प्रभू के पास, वे हैं दीनदयाल हरि ।

मन मत करौ उदास, धन मकान पट देहिं हरि ॥३॥


चौपाई:-

तब मैं कह्यौं सुनहु मम प्यारी। कालै हरि ढिग जाउँ वतारी ॥१॥

तब पत्नी घर खोज लगावा। मकरा के चाउर कछु पावा ॥२॥

तब मैं चल्यौं बांधि कै गांठी। वसन पुरान टेकि के लाठी ॥३॥

जहाँ तहाँकपड़ा फटि गयऊ। नर नारिन देखत दुख भयऊ ॥४॥


दोहा:-

धीरे धीरे मैं गयो, गांवन मांगत खाति ।

शीत घाम तन अति सह्यों, पहुँचि गयों यहि भांति ॥१॥


चौपाई:-

पुरी द्वारिका देख्यो सुन्दर। लज्जित शोभा निरखि पुरन्दर ॥१॥

गयो द्वार पै जब मैं भाई। छबि देखत दुख दूरि पराई ॥२॥

कहि नहिं सकहुं सबनि के आगे। दरबानी तब बोलन लागे ॥३॥

को हौ कौन कहां ते आओ। बचन मोहिं तुम सत्य सुनाओ ॥४॥

तब मैं हाल अपन बतलावा। दरबानिन के मन में भावा ॥५॥

धाय कहेनि वै हरि से जाई। तब प्रभु हमको लीन बुलाई ॥६॥

जब पहुँच्यौं मैं प्रभु के आगे। देखि मोहिं प्रभु अति अनुरागे ॥७॥

आँसू नयनन में भरि आये। धाय मोहिं हरि हृदय लगाये ॥८॥

सिंहासन पर दियो बिठाई। शोभा वहां कि बरनि न जाई ॥९॥

प्रभु हमसे बोलै ह्वै दीना। कहहु मित्र भाभी कछु दीना ॥१०॥

आज मोहिं लागी अति भूखा। जात मित्र मम मुख अति सूखा ॥११॥

मारे शरम के बोल्यो नाहीं। तब हरि छीन लीन हर्षाहीं ॥१२॥


दोहा:-

छोड़ि पिछौरी से प्रभू, द्वै मुठ्ठी लियो खाय ।

तीसरि मुठ्ठी भरत ही, पकर्यो माता धाय ॥१॥

अब कछु बाकी ना रह्यौ, कंचन भवन तयार ।

सकल पदारथ तहँ धरे, काह करत करतार ॥२॥


चौपाई:-

कछु दिन रह्यों घरे जब आयो। हरि माया करि मोंहिं भुलायो ॥१॥


दोहा:-

जहाँ झोपड़ी फूस की तहां सोवरन भौन ।

का मुख से बरनन करौं, चकित भयौं मुख मौन ॥१॥


सोरठा:-

थोड़ी देर कि बात माया पति माया हरी ।

कोठे पर मुसुकात, मम नैनन पत्नी परी ॥१॥


दोहा:-

देखत ही तुरतै उतरि धाय गह्यो कर आय ।

सिंहासन पर मोहिं तब, जाय के दीन बिठाय ॥१॥


चौपाई:-

भांति भांति के भवन बनाये। सुर मुनि देखि के जिनहिं भुलाये ॥१॥

काह कहौं प्रभु की प्रभुताई। शेष शम्भु कोई पार न पाई ॥२॥


दोहा:-

श्याम गरीब निवाज हैं, दीन होय जो कोइ ।

पल में करैं निहाल तेहि, वास पास में होइ ॥१॥


वार्तिक:-

श्री मोहरेम शाह जी, बग़दादी (अपढ़) - इन्होंने ध्यानावस्था में

भगवान श्री कृष्ण को अपने ही मुख से यह पद गाते हुये देखा था।

श्री सुदामा तुम तो मेरे छोटे पर के मीत,

हमरी श्राप से भये दरिद्री तबहुँ न छोड़ेव प्रीति।

जारी........