१७६ ॥ श्री निषादराज जी ॥
पद:-
मैं निषाद अति अधम मलिन तन तिन पर कृपा कीन रघुराई ॥१॥
आय प्रभू कह्यो पार उतारौ तब मैं पर्यो चरन पर धाई ॥२॥
कह्यों चरन धोये बिन स्वामी कैसे मैं अब पार लगाई ॥३॥
तब प्रभू कह्यो धोयले केवट काहे को अब देर लगाई ॥४॥
कच्छप की पीठी की कठवति देखि कृपानिधि मन मुसुकाई ॥५॥
मातु जानकी संग में लछिमन कहि न सकैं तन मन सकुचाई ॥६॥
जल भरिकै जस धर्यो धरनि में तस किरपानिधि चरन बढ़ाई ॥७॥
धोय चरन चरनोदक लीन्हा तब माता लछिमनहु धोवाई ॥८॥
बैठि नाव पर अधम उधारन मातु जानकी लछिमन आई ॥९॥
दीन चलाय नाव मैं जबहीं सो आनन्द बरनि नहिं जाई ॥१०॥
ठाढ़ि कीन जब नाव किनारे देन लगे प्रभु मोहिं उतराई ॥११॥
चरनन पर मैं शिर धरि दीन्हों ना कछु लेहौं सब कछु पाई ॥१२॥
प्रेम के बैन सुने करुनानिधि निरखि जानकी लछिमन भाई ॥१३॥
रिध्दि सिध्दि तुमको हम दीन्हीं अब आनन्द करहु तुम जाई ॥१४॥
अंत समय मेरे ढिग ऐहौ बैठि सिंहासन मन हर्षाई ॥१५॥
दीन दयाल दया के सागर भजहु तिनहिं क्यों देर लगाई ॥१६॥