१८१ ॥ श्री च्यवन ऋषि जी ॥
सोरठा:-
गुरू देंय बतलाय जब, निसि दिन होवै खेल ।
अब बाकी कछु ना रह्यौ, जीव ब्रहम से मेल ॥१॥
दोहा:-
राम नाम परधान है, लेउ गुरू से जाय ।
तब जानौ परभाव कछु, सांची दीन बताय ॥१॥
सुर मुनी संतन जो कही, सो जानो सब ठीक ।
जब तक तुम कछु ना करौ, तब तक कहना फीक ॥२॥
बिन रकार के खुले कछु, कारज होय न तोर ।
सुनत पढ़त कितने गये, काहे आंखी फोर ॥३॥
या से साधन कीजिये, छोड़ि के पाजिन साथ ।
सत्य वचन मैं कहत हौं, तब आवैं हरि हाथ ॥४॥
राम नाम सब कोइ कहै, जानै विरलै कोय ।
कथनी कथि झगड़ा करै, देय उमिरि सब खोय ॥५॥
या से सतगुरु से समुझि, जानि लेहु बेहोश ।
बिन जाने कैसे तुम्हैं, होवै सुनिये होश ॥६॥
हुआ हुआ जो नरक है, मरि के होय सियाँर ।
आंखै कान खुलै नहीं, करै विवाद गँवार ॥७॥
बक बक जे करते रहैं, ते बकुला ह्वै जायँ ।
नदी ताल में जाय कै, मछरी मेढुकि खाँहिं ॥८॥
काँय काँय करि काग ह्वै, विष्टा सब का खाँहिं ।
गदहा कुत्ता सुअर ह्वै, डंडा ढेला खाँहिं ॥९॥
हम तुमरे नीके कही, तुम जो मानौ मोर ।
सूरति शब्द लगाइ कै, बैठि जाव इकठोर ॥१०॥
निर्विकल्प का ध्यान यह, जो कछु पहले होय ।
शान्त चित्त बैठे रहौ. राम करैं सो होय ॥११॥
जब पहुँचौ तुम लय दशा, जहां मोर नही तोर ।
तब जानौ अब मिलि गयो, यही होय घर मोर ॥१२॥
जहां तलक जो जानिहै, कहै तहां तक सोय ।
या से मानो बचन मम, अन्त न पावै कोय ॥१३॥
बिना मूल जानै कोई, कैसे पावै जान ।
मूल यथारथ शब्द है, जानै चतुर सुजान ॥१४॥
या से सतगुरु से मिलौ, नाम जानि तुम लेव ।
सत्य वचन मैं कहत हौं, हरि ढिग बैठक लेव ॥१५॥