१८९ ॥ श्री मैनाक जी ॥
दोहा:-
तीरथ पाप के भार ते, जबै अधिक गरुआयँ ।
तब गौवन का रूप धरि, संतन के ढिग जाँय ॥१॥
सोवत देखैं जब उन्हैं, चाटि चरन तब लीन ।
पाप छूटि सब जाय तब, सांची हम कहि दीन ॥२॥
नाम प्रताप को जानि कै, भये राम के दास ।
ऐसा नाम प्रताप है, जानि लेय सो पास ॥३॥
गुरू के हाथ में दीन हरि, जाने बिना न होय ।
या से सतगुरु से मिलौ, बात कही हम टोय ॥४॥