१९२ ॥ श्री नन्द जी ॥
दोहा:-
कोई वस्तु अनित्य नहीं, रहत सदा ही नित्य ।
रूपान्तर ह्वै जात है, कैसे भई अनित्य ॥१॥
जैसे नैना बन्द करि, देखो कहूँ न कोय ।
वैसे हरि को खेल यह, हर दम ऐसै होय ॥२॥
जब जानौ तुम ध्यान को, देखौ सर्गुन खेल ।
जब पहुँचो तुम लय दशा, वहां न खेल न मेल ॥३॥