२२१ ॥ श्री गजराज जी ॥
दोहा:-
ग्राह ग्रस्यौ जल मध्य मोहिं, भयो युध्द तहँ घोर ।
जल के बीच न बस चल्यौ, तन मन हार्यौ मोर ॥१॥
तब मैं मन सुमिरन कर्यौ कि जो सब में सब पार ।
बाकी मैं अब शरन हूँ, लीजै मोहिं उबार ॥२॥
श्री कृष्ण भगवान जी, प्रगटे भई न देर ।
ग्राह मारि कै तुरत ही, प्राण बचायो मेर ॥३॥
अन्त समय हरि कृपा करि, दीन आपनो धाम ।
साँचा ह्वै सुमिरन करै, यही सयानो काम ॥४॥