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२४९ ॥ श्री कपिल देव जी ॥


दोहा:-

पांच देव ओंकार में, झगड़ा काहे ठान ।

ब्रह्मा विष्णु महेश जी, राम जानकी जान ॥१॥

रेफ़ बिन्दु ऊपर अहैं, सोई सब का प्रान ।

उत्पति पालन प्रलय सब, करता आपै जान ॥२॥

बिना रेफ़ औ बिन्दु के, उच्चारण नहिं होय ।

उच्चारण तो कीजिये खाली ओ ही होय ॥३॥

अक्षर निःअक्षर वही, शून्य वही सब पास ।

सत्यलोक गोलोक वह, ज्योति वही परकास ॥४॥

निर्विकार निरधार है, अजर अमर नहिं अन्त ।

सब में सब से न्यार है, प्रणतपाल भगवन्त ॥५॥

रूप अमित छवि को कहै, शेष न पायो पार ।

अपनै आपते कहत हैं, लीला अपरम्पार ॥६॥

सरगुन निर्गुन हैं वही, और न दूजा कोय ।

और होय बतलाइये, धन्य धन्य तुम दोय ॥७॥

ध्यान तलक पापील गति, शून्य तलक गति मीन ।

विहँग कि गति साकेत तक, जानहिं परम प्रवीन ॥८॥

पश्चिम मार्ग से जात हैं, राज योग यह आय ।

एक दफ़े चहुँदिसि फिरै, त्रिकुटी पट खुलि जाय ॥९॥

ब्रह्मा विष्णु महेश जी, देहिं उसे वरदान ।

तिरवेनी स्नान करि, होवै निर्मल जान ॥१०॥

ज्योती के तब दरश हों, अनहद नाद सुनाय ।

ररंकार धुनि गगन में, शून्य में लय ह्वै जाय ॥११॥

लय के आगे जब बढ़ै, हरि इच्छा ते मान ।

तब साकेत को जाइहै, राम ब्रह्म अस्थान ॥१२॥

चारि मोक्ष सुर मुनि कही, सो सब कहौं सुनाय ।

तन मन प्रेम लगाय कै, जानि लेव दुख जाय ॥१३॥

नाम कि धुनि खुलि जाय जब, प्रथम मोक्ष तब होय ।

दूसरि धुनि औ रूप ते, तीसरि लय ते होय ॥१४॥

नाम रूप परकाश लय, चारौं जेहि ह्वै जांय ।

चौथी ता को होत है, दीन्हों भेद बताय ॥१५॥

इड़ा पिंगला मध्य में, सुखमन नाड़ी जान ।

ता में है फिर चित्रणी, वा में वज्रणी मान ॥१६॥

वाके अभ्यन्तर धुनी, सब सुर तहाँ लुभान ।

सूरति शब्द कि जाप ते, जानै अति आसान ॥१७॥

जाप ध्यान दोउ संग में, अन्तराय नहिं होय ।

तब जानौ वहि जीव का, काम ठीक सब होय ॥१८॥

सुनौ अद्वैतानन्द जी, श्याम तीर्थ जी बात ।

जग में जो कीरति किह्यौ, सो सब जानै तात ॥१९॥

बैकुण्ठ धाम या से मिला, सुनिये चतुर सुजान ।

सर्व धर्म तजि हरि भजै, तब होवै कल्यान ॥२०॥

सौ हजार वर्षै यहां, रहिके भोगौ भोग ।

तब फिर यहँ से जाइहो, मिलै ठीक संयोग ॥२१॥

स्वामी शंकराचार्य जी, करैं तुम्हैं उपदेश ।

तब फिर सीधे जाइहो, सुनो प्रभू के देश ॥२२॥

सौ फूलन का हार यह, पड़ा गले में जान ।

एकै एक सुखाय है, मानौ वचन प्रमान ॥२३॥

सहस्र वर्ष जब बीतते, सूखत एकै फूल ।

ऐसे सब कुँभिलाइहैं, बँध्यौ समय अनुकूल ॥२४॥

संसकार जेहि जौन हैं, करै तैस ही तौन ।

वैसे बाको मिलत हैं, भोजन जल पट भौन ॥२५॥

जारी........