६१ ॥ श्री सकटू दास जी॥
दोहा:-
बीर भद्र का दास मैं सकटू मेरा नाम।
मेरे सन्मुख रहत हैं स्वामी आठौ याम॥
राम नाम ही जपत हैं मन ही मन एक तार।
बाहर रोवन ह्वै उठै क्या धुनि रा रा कार॥
राम सिया सन्मुख रहैं स्वामी के निशि बार।
सबै पदारथ देत हैं प्रेम करै जो यार॥
राल तेल की धूप दे सूंघै चित्त लगाय।
गुड़ घी भंग के भोग को पावैं प्रेम लगाय॥
शिव इच्छा ते प्रगट करि इन्हैं दीन बरदान।
बड़े बीर रणधीर हैं सुर मुनि नर सब जान।५।
चौपाई:-
काला बदन काल सम जानौ। चारि भुजा इनके हैं मानो।
दहिने कर त्रिरशूल है मोटा। अरुण नयन औ लोह लँगोटा।
बायें कर में गुर्ज बिराजै। जिनको देखि काल झुकि भाजै।
दहिने कर पीछे कर जो है। ता में बर्छी चोखी सोहै।
बायें कर पीछे कर माहीं। भाला सोहत अभय रहाहीं।५।