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१२४ ॥ श्री चाङ्ग देव जी ॥


दोहा:-

चाङ्ग देव चङ्गे भये लै सतगुरु से ज्ञान।

त्यागि दीन हठ योग को जान्यो बमन समान॥

सिद्धी व्याधि क मूल हैं आगे बढ़न न देंय।

चाङ्गदेव यह कहत हैं रहि रहि गोता देंय॥

जे जन इनको छोड़ि दें तिनको कहिये धन्य।

चाङ्ग देव ते सत पुरुष तिन पर हरि परसन्य॥

जे सिद्धिन में मगन हैं ते चौरासी जांय।

चाङ्गदेव कहैं कपट के कांटे हैं दुखदाय॥

राम नाम के जपे से सुर मुनि मिलते धाय।

चाङ्गदेव हरि सामने सतगुरु दीन लखाय।५।


सोरठा:-

धुनी होत एकतार, चाङ्गदेव मन मगन है।

मानो बचन हमार सुलभ मार्ग नहिं बिघन है।१।

चाङ्ग देव कहैं शोध बचन सत्य मम मानिये।

होवै तब ही बोध जब जियतै में जानिये।२।


सोरठा:-

रूप रेख नहिं रंग लय समाधि जब होत है।

चाङ्ग देव यह जंग तै कीन्हे सुख होत है॥


चौपाई:-

जब समाधि ते उतरि के आओ। तब फिर नाम रूप सुख पाओ।१।

यह आनन्द वरनि नहिं जाई। निरखत बनै कहत नहि भाई।२।

चौदह सै बरसै ह्वै गयउ। ऐसो सुक्ख कबहुँ नहि भयऊ।३।

हरि हीरा पासै में पावा। चाङ्ग देव कहैं गुरु बतावा।४।


दोहा:-

चाङ्ग देव कहैं गुरु पर कारिहैं जे विश्वास।

भेद बतावैं देर नहिं सबै वस्तु है पास।१।

सब में ब्यापक है वही अकथ अनादि अपार।

चाङ्ग देव सतगुरु बिना सबै ओर अँधियार।२।