साईट में खोजें

३१३ ॥ श्री मृत्यु लोक जी ॥


चौपाई:-

मम आवरण में जो कोइ आवैं। हरि को भजैं ते हरि पुर जावैं।१।

ब्रत अरु धर्म करैं नर दारा। ते जावैं बैकुण्ठ मँझारा।२।

पर उपकार तीर्थ करि आवैं। ते सीधे बैकुण्ठ को जावैं।३।


दोहा:-

नाना भांति के धर्म्म हैं, सुर मुनि बेदन गाय।

तन मन प्रेम ते करैं जे, ते बैकुण्ठ को जाँय।१।

तीनि अंश यदि धर्म्म है, एक अंश है पाप।

पाप क तब न निशाय कछु, धर्म्म देत है ढाँप।२।


चौपाई:-

अधिक पाप जे प्राणी करते। ते सब जाय नर्क में परते।

पाप पुण्य जब सम ह्वै जावैं। तब फिर मानुष का तन पावैं।

भजन क मार्ग बड़ा सुखदाई। हर दम सुमिरौ तन मन लाई।

सुनौ शब्द धुनि मधुर सुहावन। सन्मुख निरखौ छवि मन भावन।

ध्यान प्रकाश समाधी जानौ। निज घर को तब तो पहिचानो।५।

सब लोकन को जाय मँझाओ। जियतै में सब तै करि आवो।

इच्छा सब गत होवै भाई। तब तन छोड़ि सत्य पुर जाई।

हरि निज रंग रूप करि लेवैं। उर लगाय फिर आसन देवैं।

अनुपम सिंहासन पर राजैं। को बरनै सुर मुनि लखि लाजैं।९।


दोहा:-

अमृत दीन पिआय हरि भूँख प्यास गइ भूल।

नूर तन को लाहौ मिल्यौ, जौन यथारथ मूल।१।

प्रतिमा सम पधरे रहैं, सदा एक रस जान।

मुख नेकौं खुलिहै नहीं, मानौ बचन प्रमान।२।

सतगुरु से उपदेश लै, सुमिरौ आठौ याम।

सोई वँह पर जाइहैं, पावैं अचल मुकाम।३।


चौपाई:-

समय अमूल्य भजन बिन खोवैं। अन्त में ते निशि बासर रोवैं।

पढ़ि सुनि के ये अमल न करते। ते सब रव रव नर्क में परते।

सुर मुनि बेद भजैं जेहि भाई। ता को तजि कोइ कहाँ को जाई।

भोगी कल्पन अति दुख पाई। चौरासी पर चक्कर खाई।

ज्ञानी बनि के कथते ज्ञाना। ज्ञान क रूप नहीं पहिचाना।५।

सर्गुण को माया बतलावैं। निर्गुण स्वयं ब्रह्म ठहरावैं।

हरि का मानो चारज लीन्हा। ऐसी मति मलीन है कीन्हा।

गिरहिन के दरवाज़े जावैं। चिकनी चुपड़ी उन्हैं सुनावैं।

भोले भाले लोग लुगाई। आदर करते चित्त लगाई।

भांति भांति के भोजन पावैं। उत्तम पलँगा परि हर्षावैं।१०।

स्वामी बनि कै पग दबवावैं। पर दारन संग पाप कमावैं।

सतगुरु सो जो सत्य लगावै। भेद भाव मन में नहिं लावै।

आप तरैं औरन को तारैं। दया धर्म उर में अति धारैं।

शिष्य वही जग में परवीना। तन मन सतगुरु को दै दीना।

सो निज ठौर ठेकाना कीन्हा। जानि मानि निर्भय पद लीन्हा।१५।

भजन करैं हमहूँ हरि केरा। निशि बासर है सुक्ख घनेरा।

झाँकी युगुल सामने प्यारी। सीता मातु पिता धनुधारी।

एकतार धुनि नाम कि जारी। अनहद बाजैं मंगल कारी।

जेहि दिशि देखौ नज़र उठाई। तेहि दिशि मातु पिता छबि छाई।

सहौं भार सब जो परि जावै। मो को नेकौ नहीं बिसावै।२०।


दोहा:-

अजर अमर हौं नाम जप, सत्य कहौं हर्षाय।

मृत्यु लोक कहैं बचन मम, मानै सो सुख पाय॥