३६१ ॥ श्री निहाल दास जी ॥
दोहा:-
चिता के ऊपर बैठि कै, राम राम कहि जान।
निहाल दास कहैं जारि तन, छोड़ि दीन हम प्रान।१।
बास मिल्यो बैकुण्ठ में, आवा गमन मुकाम।
या की गणना जगत में, बात मानिये आम।२।
चौपाई:-
नाम रूप लीला औ धामा। शून्य समाधि जानि निज जामा।१।
मरै बासना निर्भय होवै। सो साकेत जाय सुख सोवै।२।
दोहा:-
जो जियतै में तय करै, सोई चतुर सुजान।
नाहिं तो जनमै मरै, मानों बचन प्रमान।१।
चौपाई:-
बाबन बेर ठगावै जोई। बावन बीर कहावै सोई।
धोका खाये बिन नहिं ज्ञाना। हम तो यह अपने मन माना।
पानी दूध वहां बिलगाना। सुनतै खुलि गे आँखी काना।
बचन हमार मानि यह लेना। सत्य नाम की सिक्षा देना।
रेफ़ बिन्दु जो सब में ब्यापक। सब का जानो यह अध्यापक।
या को जानि लेय जो कोई। ता को आवागमन न होई।६।
दोहा:-
नाम कि धुनि खुलि जाय जब, सुर मुनि दर्शन देंय।
मुद मंगल ह्वै जाय तब, हरि निज पास में लेंय॥