३१० ॥ श्री चन्द्र कली जी ॥
दोहा:-
सतगुरु करि भव जाल को, जियतै तै करि लेव।
चन्द्र कली कहैं नाम पर, प्रेम से तन मन देउ।१।
कवित्त:-
बेद औ शास्त्र पुरान पढ़ै जग में सन्मान से द्रव्य कमावै।
मंत्र औ यंत्र औ तंत्र को जानि के जीवन को बहु शिष्य बनावै।
दान करै धन धाम महीगुन केर निशान उठाय घुमावै।
मौन बनै सब वर्त करै चाहे तीरथ पांय पियादेहिं धावै।
भद्र रहै चहै राखै जटा पर स्वारथ हेतु शरीर कटावै।५।
पौन अहार तजै जल अन्न टँगे उलटा औ भुजा चढ़वावै।
मुरदा को करै तुरतै जिन्दा तन त्यागि के और शरीर में जावै।
कहैं चन्द्रकली प्रभु नाम बिना लय ध्यान प्रकाश औ रूप न पावै।८।