३१३ ॥ श्री हिकारत खाँ जी ॥
पद:-
साढ़े तीन हाथ मानुष्य शरीर सुमिरन बिन नर्क में डारत जी।
सतगुरु करि जियतै भव तरिये करते यह विनय हिकारत जी।
धुनि ध्यान प्रकाश समाधि मिलै नित सन्मुख रूप निहारत जी।
सुर मुनि आवैं क्या प्यार करैं निज वस्त्र से सब तन झारत जी।
हर दम अनहद घट में सुनिये जो संसारी दुख टारत जी।५।
जब तक तन में है द्वैत घुसा तब तक सब चोर पछारत जी।
बिन गोश चश्म हम तुम न मिटै या से सब होत है ग़ारत जी।७।