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६५२ ॥ श्री शिव लाल जी ॥


पद:-

करो सतगुरु भजन जानो लखौ गोपाल सुखदाई।

छटा श्रंगार छबि अनुपम रहे सन्मुख सदा छाई।

ध्यान परकाश लय दोनों जहां सुधि बुधि न कछु जाई।

नाम की धुनि रगन रोवन सुनो हर शय में भन्नाई।

बजे अनहद बिमल घट में चखो अमृत को हरषाई।५।

मिलें सुर मुनि कहैं हरि यश बिहंसि लिपटैं गले लाई।

चन्द्र औ सूर्य्य सुखमन हों मार्ग तब हो विहंग भाई।

जगे नागिन चलै चक्कर खिलैं सब कमल फर्रा़ई।

महक जो स्वरन से निकले बरनने में नहीं आई।९।


पद:-

लिखा बिधि का मिटै जियतै लेव तन मन को अबताई।

कहैं शिव लाल तन छूटे चलो निज धाम को धाई।१।


पद:-

सतगुरु करि चलो प्रेम नगर को।

अब न तजो निज कुल की डगर को।

यह नर देह सुरन को दुर्लभ चेति बिलग मत टरको।

ध्यान धुनी परकाश समाधि में चलो एक दम गरको।

अमृत पिओ सुनो घट अनहद क्या बरनो नित परको।५।

सुर मुनि आप कीर्तन ठानैं बिहँसि संग में छरको।

हर दम श्याम प्रिया रहें सन्मुख जिन से और सुघर को।

अजपा सूरति शब्द क यह है सुर मुनि बिधि हरि हर को।

निर्भय औ निर्वैर रहो तब मारि लात भव डर को।

कहैं शिव लाल त्यागि तन निज पुर चढ़ि बिमान पर सरको।१०।