७१७ ॥ श्री निन्दक शाह जी ॥
पद:-
खुलें न जिनके आंखैं कान। उनके ग्रन्थ पढ़े से हानि॥
पढ़ि सुनि लिखि छपवाय के धरना। करि परचार द्रब्य को हरना॥
अन्त त्यागि तन नर्क में पड़ना। कल्पन हाय हाय करि सड़ना॥
मान बड़ाई के मदमाते। लोगन गाय हंसाय लुभाते॥
ऊपर ते यह ढोंग बनाये। भीतर पाप का बंश बढ़ाये।१०।
कविता में परवीन कहाते। पर दारन के गर्भ बनाते॥
दै कर दाम उन्हैं गिरवाते। जो कोई कहै तो नहिं शरमाते॥
पाप छिपाने ते नहिं जाते। यहां वहां दोनो दिशि ताते॥
पढ़ि सुनि के समझैं जे प्रानी। उनकी कभी होय नहिं हानी॥
जे नहिं मानैं ते अज्ञानी। उनहीं के संगी हम जानी॥
बोजन पट कंगालन दीजै। निर्भय चलि बैकुण्ठ को लीजै॥
निन्दक शाह कहैं यह बाता। है अनादि सब जग बिख्याता।२४।