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११२ ॥ श्री मुकतेश्वर जी ॥


पद:-

श्रुतिन से हरि जस नैन से रूप लखौ

रसना से कीर्तन करो हर बार जी।

उनमुनी मुद्रा बैठो ध्यान होय लीला देखो

पावो परकाश दोनो कर्म होंय छार जी।

चन्द्र सूर्य एक मिलि सुखमन स्वांस होय

शून्य में समाय जाव सुधि ना बिचार जी।

सुर मुनि आय आय दर्श देंय बतलाय

रोम रोम शब्द धुनि उठै रंकार जी।

मुक्ति भक्ति ज्ञान योग जप तप संग डोलै

जियति में जानो करि सतगुरु सार जी।

मुकतेश्वर बैन कहैं पढ़ि सुनि जे न गहैं

तौन दुख जाय सहैं नर्क के मंझार जी।६।