१२५ ॥ श्री जानकी कुँवरि जी ॥
पद:-
जानकी कुँवरि कह जग में तौन नर नारि सुख पावै।
सुरति औ शब्द का मारग जानि सतगुरु से रमि जावै।
ध्यान परकाश लै धुनि हो रोम प्रति रोम गोहरावै।
छटा सिय राम की सन्मुख सदा निरखै औ मुसक्यावै।
देव मुनि देंय सब दर्शन मधुर बाणी से बतलावैं।५।
फेरि कर से पकड़ि कर को कीरतन संग करवावै।
मधुर अनहद बजै घट में वरनने में नहीं आवै।
कमल सातौं खिलैं सुंदर महक क्या स्वांस ते आवै।
नागिनी जागि सीधी हो चक्र षट बेधि घुमरावै।
पांचहु तत्व के क्या रंग न्यारे न्यारे दरशावै।१०।
इड़ा औ पिंगला नाड़ी एक में जाय मिलि जावै।
चित्त बृत्ती एकागर हो त्रिवेणी जा के नहवावै।
चखै अमृत अनुपम क्या जो बारह मास झरि लावै।
भरा सामुद्र अति गहरा थाह उसकी न कोइ पावै।
जियति में तै यहां करि ले अन्त साकेत सो जावै।
नहीं तो है बृथा नर तन पड़ा भव सिन्धु चकरावै।१६।
दोहा:-
ब्रह्मचर्य्य धारन करै, घट में होय प्रकाश।
कहैं जानकी कुँवरि तब, आस होय सब नाश॥