२२२ ॥ श्री मुरही माई जी ॥ (२)
पद:-
तन मन की एकता का सुख ले लो ले लो जनियाँ।
सतगुरु करो गहो मग सब चोर होवैं पनियां।
धुनि ध्यान नूर लय हो जहँ रूप रँग न बनियाँ।
सुर मुनि के होंय दर्शन सुनो घट में नाद तनियाँ।
संग खेलै कृष्ण राधे क्या बाल रूप अनियाँ।५।
हँसि चट उठाय लीजै जोड़ी को दोनों कनियाँ।
मल्हराओ चूमि मुख को बस जावै प्रेम सनियाँ।
आँसू चलैं दृगन से चुप चाप ह्वै रसनियाँ।
तन त्यागि लेव निज पुर छूटै गरभ झुलनियाँ।
मुरही कहै ऐ बहिनो गुनि लेव मम कहनियाँ।१०।
दोहा:-
सन्त कि पदवी ऊँच अति, कवि कोविद क्या चीज़।
राम नाम जान्यो नहीं, जो सब वस्तु क बीज।
सान मान त्याग्यो नहीं, या से जग चकराँय।
सतगुरु करि जागे नहीं, पुनि पुनि धोखा खाँय़।
मसलि तमाकू खाय करि, करैं भूमि बरबादि।
पूँछै कोई तब कहैं, है यह धर्म अनादि।६।
चौपाई:-
मदिरा मांस क हाल बतावैं। ऋषि मुनि खायो लिखा दिखावैं॥
कलम दवाइत अपने हाथा। लिखि लिखि खूब बढ़ायो गाथा॥
जा के मन जो उठा बिचारा। वाको वाने खूब सँवारा॥
अधरम का फल नर्क में पाते। हर दम हाय हाय चिल्लाते॥
अपने कुल में दाग लगाना। गुनिये है यह पाप महाना॥
परम्परा या से सब बिगरी। छोड़त बानि न कैसे सुधरी।६।
दोहा:-
मुरही कह हरि भजन बिन, मिलत न पद निर्वान।
सतगुरु करि जप भेद ले, खुलैं नैन औ कान॥