३७५ ॥ श्री बाबा हरि चरन दास जी ॥(३)
नाम क नशा जौन कोई पावै।
चढ़ै अमल कबहूँ नहिं उतरै तन मन प्रेम मिलावै।
ध्यान धुनी परकाश दशा लय जहाँ पवन नहिं जावै।
अमृत पियै सुनै घट अनहद सुर मुनि हँसि उर लावै।
नागिनि जगै चक्र सब नाचैं कमलन महक उड़ावै।५।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि हर दम सन्मुख छावैं।
सतगुरु करै मिलै यह मारग जियतै भव दुख जावै।
कह हरि चरन त्यागि तन हरि ढिग जाय न जग चकरावै।८।