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४६८ ॥ अनन्त श्री स्वामी सतगुरु नागा ॥

    जारी........

राम नाम तप बित्त, चित्त चेत के लूटिये।

उत्तब बने व इत्त, राम दास नागा भनैं॥

चन्द रोज की बात, राम दास नागा कहैं।

नाम प्रेम से कात, चलौ राम के पुर रहैं।७।

 

चौपाई:-

निरगुण निराकार भगवाना। भक्तन हित सरगुण बनि आना॥

जोगी जन अनुभव करि जाना। र रंकार ते सब फरिआना॥

पढ़ि सुनि के जो करत बखाना। तिनको जानो वाक्य क ज्ञाना॥

मत्थे से हत्थे में आना। तब भक्तों होवे कल्याना॥

सतगुरु किहे बिना दुख नाना। राम नाम अनमोल महाना।५।

 

कोटिन में कोइ या को जाना। बनिगो मस्त न गस्त लगाना॥

सत्य प्रेम का बांधो बाना। नागा राम दास मन माना॥

सतगुरु करौ भेद तब पावौ। जियतै महा सुखी ह्वै जावौ॥

सूरति शब्द पै अपनी लावो। बैठि उनमनी ध्यान लगावो॥

नाभि नासिका एक मिलावो। चढ़ि के गगन परम पद पावो।१०।

 

प्रेम भाव विश्वास बढ़ावो। निरगुण सरगुण भेद मिटावो॥

जियते बिजय पत्र जब पावौ। तब निज कुलकी रीति पै आवौ॥

सब में रूप तेज लखि पावौ। नागा राम दास गुण गावो।१२।

 

पद:-

रमाई जो छिमा नारी, वही सन्तोष को पाई।

कहैं नागा जियत जागा, राम का दास कहवाई।

ध्यान धुनि नूर लै होवै, जहां सुधि बुधि को बिसराई।

हर समय राम सीता की, छटा छबि सामने छाई।

मिलें सुर मुनि बिहंसि करके,कहैं हरि यश को नित गाई।

पिये अमृत सुनत अनहद बजै एक तार सुखदाई।

उठै नागिन फिरैं चक्कर, खिलैं सब कमल फर्राई।

अन्त तन त्यागि निज पुर को चलै फिर जग न चकराई।