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॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥

जारी........

दोहा:-

मन को मीत बनाइले साधक जानै नाम।

अंधे कह सतगुरु बचन संघै डोलैं राम।१।

 

पद:-

त्रिभुवन पति गिरिधर मुरली घर। अंधे शाह परत चरनन पर।२।

आप कि कृपा ते गै अगणित तर। मुक्ति भक्ति का दीजै प्रभु वर।४।

 

दोहा:-

सतगुरु छानि के कीजिये, पानी पीजै जान।

अन्धे कह गहि दीनता, लीजै आँखी कान।१।

 

चौपाई:-

तीन बर्ष तक संग हमारा। श्री कबीर का भा निशिबारा।१।

दस बरसै हम उनसे छोटे। नित्य प्रति हम चरनन पर लोटे।२।

बिहँसि बिहँसि मोहि हृदयँ लगाये। रहनि,गहनि औ सहनि बताये।३।

हरि औ हरि दासन गुन गाये। सुनि सुनि तन मन आनन्द आये।४।

 

दोहा:-

भक्तन की महिमा बड़ी जानहिं श्री भगवान।

अंधे कहैं जिन पर किये तन मन निज कुरबान।१।

 

चौपाई:-

हिन्दू मुसलमान सब जाती। राम भजन बिन हों कुल घाती।

सतगुरु के चरनन जो माती। राम नाम सो पावै काती।

हर दम मन मनात रहे तांती। हर शै से धुनि सुनै सुनाती।

सन्मुख राम सिया छबि छाती। जियतै तरै जुड़ावै छाती।

प्रेम की ऐसी सुन्दर गाती। भजन के सांगोपांग जुहाती।५।

 

सुनि चित चेति भजै दिन राती। ब्रह्म अगिनि घट बारै बाती।

हरि ढिग पहुँचि सकै तब पाती। चातक सम जो नेह लगाती।

आशा से नित समै बिताती। कब बरसैगा मम जल स्वाँती।

इस बिधि से वह प्राण बचाती। समुझौ भक्तौं सबन चेताती।

नीचे से हैं ऊँच बनाती। छोड़ो कपटी पोता नाती।१०।

 

अन्त समै कोइ काम न आती। जिन हित ठगत फिरत बहुँ भाँती।

जमगण धरैं पेट पर लाती। हवा खुलै औ निकसै आंती।

बोलि न फूटै बंधि जांय दांती। आँसुन की जारी हो पांती।

कोइ बैठी कोई औंघाती। कोइ रोवैं कोई पीटैं छाती।

कोइ दुख मांहि गिरैं उठिधाती। कोइ लट खोलि परी बिल्लाती।१५।

 

कोइ फटकैं कोई चिल्लाती। कोई बिलखै पैर हिलाती।

या बिधि घर सब सोक भे माती।तन तजि गये कहां संघाती।

मिट्टी तुमरी चिता पै जाती। जारि भूँजि के खाक बनाती।

दसवां तेरहीं तक बतलातीं। थे हमार अब मिलै न लाती।

जाय के काहे न पता लगातीं। निज स्वारथ हित भाव दिखातीं।२०।

 

कछु दिन बीते गाना गातीं। हँसि हँसि के गृह कार्य बनातीं।

सुमिरन बिन तन ओस क जाती। या से भजन करो हो सांती।

हरि की सन्मुख होवै क्राँती। छूटि जाय तब सारी भ्राँती।

नीक कहैं तो सुनत पिराती। अंधे कहैं अन्त हो ताती।२४।

 

दोहा:-

अंधे कह कँह तक कहैं, यह संसार क हाल।

हरि सुमिरन बिन सब बृथा, यह सारा जंजाल।१।

 

पद:-

राम नाम की खाव मलाई।

ऐसा स्वाद न पैहौ भक्तौं सुर मुनि सब बतलाई।

या को पाय अमर ह्वै जैहौ कबहूँ न भूख सताई।

सिया राम प्रिय श्याम हरि लेंय उछंग उठाई।

मुख चूमैं औ हिये लगावैं बार बार दुलराई।५।

 

अन्त त्यागि तन चढ़ि सिंहासन बैठो निज पुर जाई।

कोटिन जन्म की होय कमाई सो नर का तन पाई।

जारी........