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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(६६)


पद:-

सतगुरु से सुमिरन सिख करके तन मन ठरि प्रेम से ध्यावति है।

धुनि ध्यान प्रकास समाधी हो सन्मुख षट रूप को छावति है।

सुर मुनि भेटैं अनहद सुनते अमृत पी कर हर्षावति है।

खुशबू की मस्ती मस्त करै मुख से कुछ बोलि न पावति है।४।

नागिनि जागै सब चक्र चलैं कमलन को उलटि खिलावति है।

नैनन से शीतल नीर झरै क्या रोम रोम पुलकावति है।

तन थर थरात है मन्द मन्द कर पग औ शीश हिलावति है।

अंधे कहैं तन तजि जाय वतन फिरि गर्भ बास नहि आवति है।८।


दोहा:-

खर की गठियन में भयो घाटा नौ मन क्यार।

अन्धे कह मानो सही धोबी करत पुकार॥