१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(९६)
पद:-
राम भरथ औ लखन शत्रुहन गबुहारे रोवैं न चुपावैं।
श्याम गौर अति कोमल सुन्दर सुर मुनि सब दर्शन को धावैं।
नृप दशरथ सब रानी पुर जन निरख निरख के हिये हुलसावैं।
पलंगन पर सब मचल रहे हैं आंखैं मीचैं गोद न आवैं।
पुर बासी गृह बासी बोलैं नजर लागि या से दुख पावैं।५।
दशरथ जी सुमन्त को भेज के श्री वशिष्ट जी को बुलवावैं।
बैठ बिमान पै श्री वशिष्ट जी रनवासै को तुरत सिधावैं।
देखैं बालक व्याकुल चारों नैनन से अश्रुवन झरि लावैं।
श्री गुरु मंत्र पढ़ैं कुस कर ले सब के तन पर फूक लगावैं।
सिर से पग तक कुस को फेरैं तुरतै कुँवर हँसैं मुख बावैं।१०।
माता लालन को कर गहि के श्रीगुरु के चरन परावैं।
सब के सिर पर कर गुरु परसैं आशिष देंय मगन गुन गावैं।
सतगुरु करै भजै निशि बासर नाना बिधि के खेल दिखावै।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि चारौं रूप सामने छावैं।
अमृत पियै सुनै घट बाजा नागिनि चक्र कमल जगि जावैं।
अन्धे कहैं अन्त श्री अवध में पहुँचि जाँय फिर गर्भ न आवैं।१६।
दोहा:-
इस्बन्ध हींग की धूप दै नैनन काजल देय।
माथे अनखा टीप के राम राम कहि लेय॥
नजर न लागे बालकन सुबह शाम करि देय।
गृह की अबलायें सबै अन्धे कह सिखि लेंय।२।