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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(११९)


पद:-

सतगुरु से जानि वरजिस। निज तन में कीजै गरदिंस॥

देखो हरी को सब दिस। सुर मुनि खिलावैं किसमिस॥

चोरन का खेल ढिस मिस। चुप बैठिगे भगी रिस॥

चेतो नहीं तो हो खिस। जमदूत डारिहैं पिस॥

अन्धे कहैं सदा निसि। अति कष्ट गंध का बिस।१०।