१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१३०)
पद:-
मनुवा जीव को देता घुड़की।
पाँचों चोरन को संग लै कर करवावत नित कुड़की।
ऐसा दुष्ट नेक नहि मानत जिमि जल में तड़ बुड़की।
छिन छिन में वह सफ़री खोजत मारि मारि के डुबकी।
सतगुरु करि सुमिरन बिधि जानै बात यही है फुरकी।
सारे दुष्ट शान्त ह्वै बैठैं राह मिलै निज पुर की।६।
सुर मुनि आय खिलावैं भक्तौं नित प्रति चूरा भुरकी।
हर दम षट झाँकी दें दर्शन नेक सकै नहि मुरकी।
अमृत पिओ सुनो घट अनहद तालैं मधुर सुधर की।
नागिनि चक्र कमल सब जागैं गमकैं लेउ उधर की।
अन्धे कहैं अन्त निजपुर हो जग छूटै जिमि चुरकी।
शान्ति दीन बनि तप धन जोरो सकै न कबहूँ ढुरकी।१२।