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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१८४)


पद:-

नाम पै मन लगा करके चोर जिन शाँति करि डारा।

कहैं अन्धे वही जग से जियति ही हो गया न्यारा।

सुनै अनहद छकै अमृत गगन ते वह रहा धारा।

जगी नागिनि सुधे चक्कर कमल सब फूले एक तारा।

महक से छा गई मस्ती बहै नैनों से जल धारा।

रोम पुलकैं कंठ गदगद बदन क्या काँपता सारा।

मिलैं सुर मुनि लिपटि करके बिहँसि सब बोलैं जैकारा।

ध्यान परकास लय पहुँचा कर्म शुभ अशुभ भे छारा।

धुनी हरि नाम की होती उठै हर शै से रंकारा।

छटा सिय राम की हरदम सामने होत दीदारा।१०।

छोड़ि तन चढ़ि सिंहासन पर गया साकेत को प्यारा।

भक्त तँह अमित हैं बैठे रूप रंग प्रभु के सुख सारा।

चेति करिके करो सतगुरु भजन में लागो नर दारा।

नहीं तो फेरि पछितैहौ काल के गाल हो चारा।

बड़ा अनमोल नर तन है भजन के हित गया ढारा।

इसे क्यों मुफ़्त में खोते मिलै ऐसा न फिरि बारा।१६।